अध्याय 8 ॥ हार ॥
2003, मेरा दँसवी का परीक्षाफल निकला और मेरे केवल 56 प्रतिशत बने, मैं सुबह से शाम तक घर नहीं आया। घरवालों को शक्ल दिखाने की हिम्मत नहीं थी। मैं बहुत ही दुःखी था घरवाले मना- बुझा के ले तो आए पर मुझे केवल साँत्वना नहीं चाहिए थी। तब मैने रात को बैठ ये कविता लिखी।
मत मान मगर तू हार के ऐ! साथी मेरे
एक साथ छूटा तो क्या
अभी अपने हमारे और भी हैं।
ना बन तू कटी पतंग के
एक तार टूटा तो क्या
है तू वो लता अभी जिसके सहारे और भी हैं।
एक मंजिल छूट गई तो क्या?
एक राह ना मिली तो क्या?
ज़रा नज़र डाल इक बार जिवनपथ अनंत है अपार
और इस पथ पर मंजिले अभी और भी हैं।
तू मायूस ना बैठ, उतरा चेहरा संभाल
महफिल का रंग तो अब जमाना है
तू सिर्फ दौड़ में पिछड़ा है, हारा नहीं।
जो दिया जलने से डरता है
उसकी किरणें वहीं सिमट जाती हैं
हिम्मत करता है मगर नन्हा सा बीज
तो चट्टानों में भी कोपलें फूट आती हैं।
बाग़ में सहमा सा बैठा है तू हिम्मत हार के
साहस के छितरे टुकडे़ समेट और बड़ा चल
खु़दा की इस दुनिया में
तेरी सोच से परे सुंदर नज़ारे अभी और भी है।
मत मान मगर तू हार
के एक बहार ना मिली तो क्या
इस दूनिया में ये फिज़ाएँ, ये हवाएँ और भी हैं।
हंसना तू भूल गया तो, जा भूल जा
यहाँ खुश रहने की अदाएँ और भी हैं
चल माना तकदीर में तेरे बस काला शब्द ’हार‘ है,
पर है तू इंसान तुझपर इतनी नेमत तो बख्शी हैं।
हंसी- हंस रही तेरी राह के काँटो पर तो क्या!
क्या हुआ गर तेरा रास्ता बाग़ों का नहीं थोड़ा सा जंगली है
उठ देख इतिहास के पन्नों को तू पानी में जलचरों से जीता है
झुकता है बाज तेरे आगे तू अम्बर विजेता है।
हंसने दे उस तकदीर को
हंसने दे अरे वो तो पगली है।
है तू ही वो इंसान भी जिसने तकदीरों की तकदीरें बदली हैं
के नहीं है किस्मत का मोहरा मगर
है वो विधाता भी तू के तेरी तकदीरें अभी और भी हैं।
मत मान मगर तू हार के
ये मौसम, ये नजा़रे और भी है।
ये गगन, ये सितारे और भी हैं।
ख़ुदा की नेमतें फिर बरसेगीं
तुझ तक पहुँचनें को खुशहाली खुद तरसेगी
संग तेरे लाखों दुआएँ अभी और भी हैं
माना अथाह समुद्र में एक और टापू टूट गया
इकलोता ठिकाना था, वो भी रूठ गया
पर ना मिला तुझे एक साहिल तो क्या
उठ देख सागर अनंत है विशाल
नज़रों के पार अभी इसके किनारे और भी हैं।
अभी ठिकाने और भी हैं …….. ।।