अध्याय 36 ॥ गुस्सा जो निकलना था सरकार पे ॥
25 जनवरी 2014, - देश में इलैक्शन का दौर शुरू हो गया और ए ए पी नाम की नई पार्टी आ गई। मैनें अपने दफ्तरों में लोगों को पीसते हुए देखा था तो मैं जानता हूँ की एक आम आदमी इस साल के इलैक्शन में कैसा महसूस कर रहा है। और ये मैने रात को करीब ढाई बजे लिखी।
पीट रहा हूँ जो बच्चों को झुँझलाहट भरी मार मे
ये वो गुस्सा है जिसे आखिर निकलना था सरकार में।
बारह घॅंटे दफ्तर से चिड़चिड़ा सा होकर आता हूँ
उसपर भी घर नहीं चलता इस भीख सी पगा़र में।
बारहखड़ी व अक्षरमाला पढ़ाने के देते हैं पाँच हज़ार
और ग़रीबी रेखा खत्म हो जाती है सिर्फ तीन हज़ार में।
थाली तो पाँच साल में करीब पचास बार मॅंहगी हुई
कब तक उलझा रहूँ झूठी औद्योगिक क्राँती के विचार में।
जनाब, मैनें पंद्रह साल न्यूनतम मेहनताने पे गुज़ारे हैं
फिर देश कैसे तरक्की कर रहा है इनके अखबार में।
हफ्ते में छः दिन, घँटो गधा समझ के हड़काते हैं।
उसपर फोन करके जीने भी नहीं देते इतवार में॥
तेरे हुस्न का जादू अब दिल बहलाता नहीं है
ईश्क की कीमत खत्म हो चुकी है अब पेट के बाज़ार में।
और दिन-दिन कर रोज़ यूँही बस खर्च हो रही है जिंदगी
जाने क्या खरीदा मैंने साँसों के इस व्यापार में।
पीट रहा हूँ जो बच्चों को झुँझलाहट भरी मार में
ये वो गुस्सा है जिसे आखिर निकलना था सरकार में।