अध्याय 7 ॥ कविता–सार ॥
अप्रैल 2009, मैने एक मैग़जीन में पढ़ा की आजकल लोगों का साहित्य से लगाव कम होता जा रहा है। और कवि इस फ़ासले को कम करने के लिए बोलचाल की आम भाशा का प्रयोग की बजाय इस्तेमाल करने लग गए हैं। मैं तो बचपन से इसी पद्धति पे यकीन करता था। भले ही चार पक्तिं फालतू लगे पर सार ढूंढने के लिए किसी को भी मेहनत नही करनी चाहिए। बस यही ध्यान में रखकर मैने ये कविता लिखी।
ना ब्रह्म ज्ञान, ना वेद–पुराण
ना गीता सार लेकर आया हूँ ।
छोटी सी एक कविता,
और उसमें प्यार लेकर आया हूँ ।
साहित्य जगत में आजकल कविता को श्रोता नहीं मिलते
मैं निर्लज्ज बिन बुलाया,
एक कविता देने स्वॅंय तुम्हारे द्वार लेकर आया हूँ,
जग में बहती इक पावन नदी - विचारधारा
जिसके तट पर बसा सुन्दर - साहित्य जगत
उसी जगत के प्रांगण में खिला, एक पौधा,
ज्ञान की कोठरी में बंद,
साहित्य की जंजीरों में जकड़ा,
शब्दों के जाल में फॅंसा,
शब्दाशय के काँटों में अकड़ा
सर्वजन सामान्य से कोसो दूर,
ना जाने कितनी सदियों से है बसा,
चुरा कर उसके कुछ सरल से पुष्प मैं उधार लाया हूँ ।
उस प्राँगण से इस आँगन तक देने
एक कविता मैं स्वयॅं तुम्हारे द्वार लाया हूँ॥
मंदी में गिरती, मॅंहगाई में दबती
अब ये दुनिया केवल भागती है।
होड़ लगी है जि़दगी की यहाँ
बस यूँही प्रगति के नाम पर रातभर जागती है।
चींटी और मधूमक्खियों की तरह
अब मानव भी मशीन बना
कभी सफलता कभी विफलता की चिंता में
खुद को जिंदगी अब इन्ही साँचों में बाँटती है।
ऐसी ही जिंदगी से थोड़ा सा ठहराव मैं उधार लाया हूँ ।
दम भर लो कुछा देर ऐ यारो!
मैं कविता देने स्वॅंय तुम्हारे द्वार आया हूँ॥
कोयल पपीहे की बात दूर है
कव्वे के स्वर को तरस गए हो
धूल, धूँए को , सूँघ-सूँघ कर
मोटरों के हॉर्नों में बस गए हो
भीगे तो बरसात, पसीने से गर्मी और कोहरे में सर्दी,
बस इन्ही तीन मौसमों में तुम फॅंस गए हो।
अस्विन, कार्तिक के त्योहार, वो उत्सव और उमंग
माघ, फाल्गुन के बिखरे पत्ते वो फगुआ के रंग
चैत, बैशाख की पवन, वो खेतों की पूलें
भादौ की मिट्टी की खुशबू और वो सावन के झूले
मैं रिमझिम इन बूँदों की बौछार लाया हूँ॥
कोहरे को महसूस करो तुम,
घास की दरियों पे सो लो।
कूद जाओ तुम लहरों पे
और इन्द्रंधनुष के संग हो लो।
मैं पुरवईया और पछुआ का वही उल्लार लाया हूँ ।
मैं मौसमों को कविता में धर स्वॅंय तुम्हारे द्वार लाया हूँ॥
मानव ने पक्षी बनकर उन्मुक्त गगन में उड़ना सीख लिया।
पानी में जलचर बन गहराइयों में उतरना सीख लिया।
बाँट दिया धरती को अपनी धर्म और जातों को बाँट दिया।
इंसान बनना नही सीख़ा बस आदमी बनके रहना सिख लिया।
कविता जड़ है आर्दशों की,
तुमने समझ टहनी इसे तोड़ दिया
माँ है कविता, बहन भी है
जिसे कुंठा समझ के छोड़ दिया।
वह बिंदू बनकर टिकी रही आधार जो तुमको देने को
बस तुम्ही ने यूँ पॅंक्ति बनकर आगे बढ़ना सीख लिया।
मैं मानवता में लिपटी एक और कविता देने स्वॅंय तुम्हारे द्वार आया हूँ॥
सीने पर पैर धरे किसी के हम ऊपर चढ जाते हैं।
इसे नवयूग की नवीन क्रॅाति कहते हैं
जीवनमुल्य तो कब के खोखले हो चुके,
आखि़र प्रभू को भी तो हम भ्राँति कहते हैं।
अजीब शब्दकोष है, दोस्तो!
भीड़ को महफिल, शोर को चहल–पहल,
और सन्नाटे को अब हम शाँति कहते हैं।
हल्ले-गुल्ले जैसे गीत, उछल-कूद वाले नृत्य
भई! पाश्च्यात सॅंस्कृति है छाई,
आखि़र नौकरी इसी ने दिलवाई,
सॅंस्कृत तो ख़ुद मुझे भी नहीं आती,
हाँ! अंग्रेजी पूरी बोल लेता हूँ ।
कालिदास का तो केवल नाम ही सुना है।
हाँ! शेक्सपेयर को पूरा टटोल लेता हूँ ।
मैं खुद एक साधारण मनुष्य,
तुम्हारी इसी भाग दौड़ का हिस्सा हूँ ।
इसी दौड़ धूप से चुराकर लम्हे दो-चार लाया हूँ।
मैं चंद छंदों में मेहनत उड़ेल,
देने उस कविता को स्वॅंय तुम्हारे द्वार आया हूँ॥
इन चंद पन्नों को समझो मत महसूस करो,
ईन्हीं चंद पन्नों में अपनी व्यथा अपार लाया हूँ ।
मैं तुम्हे कुछ फुरसत भरी साँसे देने,
निर्लज बन ख़ुद तुम्हारे द्वार आया हूँ ।
इन्ही में लपेट मैं
कुछ काँटे समेत एक नन्ही सी कविता का फूल
और उसमें ढे़र सारा प्यार लाया हूँ ।
जिसे देने मैं थाल सजाकर खु़द तुम्हारे द्वार लाया हूँ ।
निर्लज बन स्वॅंय तुम्हारे द्वार आया हूँ……॥