अध्याय 10 ॥ जुदाई ॥

2005, अब वक्त बदल गया था। मैंने दो साल मेहनत की! मैं जब भी हताश होता तो मैं रामधारी सिहँ कि कविता ’लोहे के पेड़ हरे होंगें‘ गुनगुना लेता था। अब मैं कोई हारा हुआ आदमी नहीं था अपितु अंग्रेजी का टॉपर था। और दिल्ली विष्वविद्यालय में पड़ रहा था और साथ ही कॉलेज की शतरंज की टीम का कप्तान भी था। उस दौरान मैने ये कविता लिखी और खूब वाह-वाही लूटी। इसकी वजह से मैने कई दोस्त भी बनाएं। एक बार कॉलेज की एक प्रतियोगिता के लिए मैने ये कविता पढी़ तो उन्होने कहा की ये तो सरासर चुराइ हुई है। एक आम लडका, बी. कॉम हॉनर्स का ऐसी कवितायें नहीं लिख सकता और ऐसे उर्दू के अल्फाज़ो का ज्ञान तो बिलकुल भी नहीं पा सकता। असल में मुस्तकिम नाम का लडका था कॉलेज में उसने मुझे ये शब्द सिखाए थे। और ये कविता आज शायद हमें वो मायने ना दे पाए पर उस वक्त ये एक जवान दिल की नज़्म थी और मैं इसे बेहद अव्छी कविताओं में गिनता था। वैसे आज भी गिनता हूँ बस सोच बदल गई।

॥ जुदाई ॥


अपने दिल के अरमानों को टूटे हुए सपनों पे तेरे

हमेंशा मैं यूँही लुटाता रहुँगा….

ना पाऊँगा तुझे मैं लेकिन किसी को तेरा बनाकर

मैं ख़ुद को उसी में समाता रहूँगा….

काश! अगर कर पाऊँ तो तेरे नसीब में खुद को बसा

तेरे सारे रंज-ओ-ग़म मैं रख लूँगा

और ताऊम्र तुझे यूँहीं हँसाता रहूँगा….


क्यों अपने ग़मों का बोझ मैं किसी को उठाने दूँ

इन खू़बसूरत तन्हाईयों में बसी है जिन्दग़ानी मेरी

कैसे इन तन्हाईयों को मैं ऐसे ही मिट जाने दूँ

ना पड़ जाये तुझपर इनका अंधेरा कँहीं, यूँही

मैं इसे अपनी परछाईयों में छिपाता रहूँगा….


ना बाटूँगा इन ग़मों को साथ किसी के मैं

समझो ग़र खुदग़र्ज मुझे तो ये ही सही

के कहाँ है कोई हक तुझको रूलाने का मुझे

के ना दब जाये ये हसीन खिलखिलाहट कँही

मैं ग़मों को अपने, हंसी में यूँही दबाता रहूँगा….


हर घड़ी, हर दस्तक पे तेरी ही याँदे सताती है

पर ठुकराया हुआ कैसे कँहू,

तूने तो मुझे अपनाया ही नहीं

वक्त निकलता रहा इतंजा़र में तेरे,

ना किया इकरार तो ये किस्मत मेरी है

पर ज़ालिम तूने तो मुझे बतलाया भी नहीं।

ना समझे तू की ग़लती तेरी है इसमें, बस यूँही

उस इंतज़ार-ए-इकरार को मैं पल-पल भुलाता रहूँगा….


वक्त को संभालना चाहा मलहम समझ

पर कम्बख़्त पानी सा निकला वो भी,

ना खुले हाथों में संभला, ना मुट्ठी बंद करके,

ना हो जाए ये ख़फा तुझसे कँही, यूँही

मैं दोस्त बनकर इसे फुसलाता रहूँगा….


चाहे बहारें ना दिखें अब,

चाहे नज़ारे नज़रें फेर ले मुझसे,

अब क्या फर्क पडता है इससे

तूने इस लायक ही नही छोडा़

की मैं रंगों को महसूस कर सकूँ।

कँही दर्द का अहसास ना हो जाये तुझे मेरे,

मैं अपने दर्द-ए-दिल को विरानों में यूँही

बस यूँही गुनगुनाता रहूँगा….


मग़रिब में कि मशरिक में, सूरज में कि किरणों में

धरती पे, अंबर में, चाँदनी में, या ग़ज़र में

है कौन सी जगह जब तू सताती नहीं है।

दूनिया के कोनों में या कि भरे बाज़ार में

ओरों कि क्या कहूँ खुद कू-ए-यार में

हैं कौन सी तरह जब तू रूलाती नहीं है।

जिस्त फाँकों से सना है, ख़ून पानी सा बना है

तू क्या जाने कि ऐ! कातिल मेरे

नस्ल-ए-आदम की जवानी और रवानी है इसमें,

रूह-ए-तामीर है खुदा की कहानी है इसमें

है नहीं कोई हक इसको मिटाने का तुझे

है बस इतनी वजह की जब तू इसे बनाती नहीं है।

पर जा कि ये हक़ भी दिया हमने तुझे

ना लग जाए तुझपर इल्ज़ाम मेरे कत्ल का कॅंही

मैं तेरी बर्बाद करने की लतों पे,

अपनी रूहें ख़ुद ही बनाता और मिटाता रहूँगा….


अपने दिल के अरमानों को टूटे हुए सपनों पे तेरे

हमेंशा मैं यूँही लुटाता रहूँगा….

ना पाऊँगा तुझे मैं लेकिन किसी को तेरा बनाकर

मैं ख़ुद को उसी में समाता रहूँगा….


साहिलों तक नहीं पहुँच पाते हैं कई

दरिया में डूबकर बह जाते हैं कई

सागर की लहरों में हूँ मैं कहाँ ना जाने

तर रहा हूँ यूँही दरख्तों पर कँही

सागर की हर मौज बहाए जा रही है

दिल में बसे दर्द की तरह समाए जा रही है,

हूँ किनारों पे खडा मै, पर आखिर

कहाँ है साहिल मेरा मुझे खु़द मालूम है नहीं

तो क्या? अगर, ना मिला मुझे मेरा साहिल

ना डूब जाए तू इसी डर से,

हर साहिल तक तुझे यूँही मैं पहुँचाता रहूँगा….।

सच यही है बस यही के मैं टूटा हुआ हूँ, ताऊम्र रहूँगा,

पर अपनी मुस्काने मिटाके भी मैं तुझे सदा यूँहीं चाहता रहूँगा

अपने दिल के अरमानों को टूटे हुए सपनों पे तेरे

हमेंशा मैं यूँही लुटाता रहूँगा….

ना पाऊँगा तुझे मैं लेकिन किसी को तेरा बनाकर

मैं ख़ुद को उसी में समाता रहूँगा….