अध्याय 69 ॥ बाँसुरीवाला ॥

01 जून 2018


॥ बाँसुरीवाला ॥



जेठ की कड़कती धूप और कुछ छज्जों की छाँव

ऐसा ही था नोएडा का वो अत्याधुनिक गाँव

मैट्रो से जैसे हर साँस एक

दुनिया चढ़ रही थी

और एक दुनिया उतर रही थी

भीड़ ऐसी कि जंगल की भगदड़ भी शर्मा जाए।

अपरवासी पंछी भी पानी पानी हो जाएं

जैसे चींटियाँ किसी बाँबी से बाहर आएँ

पर कोई भी किसी से ना बतियाए

एक सिधी कतार में, सर को झुकाए

अपने-अपने मोबाइलों में गु़म

कानों में हैडफोन लगाए

चिल्लाओ तो मजाल है कोई पलट जाए

कोई रॉक सुनता अजीब शक्लें बनाता था

तो कोई पॉपस्टार जैसा नाचता जाता था

किसी को जैज़ म्यूजिक पसंद था

कोई तेज़-तेज़ रैप गुनगुनाता था

कोई क्लाइंट्स बनाता था

कोई प्वाइंट्स बनाता था

किसी को बॉस की डाँट पड़ी थी

तो कोई बिवी को मनाता था

सब मीलों दूर बैठे किसी शक्स से जुड़े थे

पर अपने साथ खडे आदमी से जन्जान थे

ये नजारा शायद यहाँ रोज का काम था

इनके बस चेहरे बदलते थे और बदलता नाम था

हजारों कि भीड़ हर कोई अलग

पर आखिर सब का यही अंजाम था

और बस यूँही धूल पर पड़ते थे ये अंजान पाँव

ऐसा ही था वो नोएडा का अत्याधुनिक गाँव॥



पेड़ तो कहाँ थे हाँ मगर एक कीकड़ कहीं से उग आया था

ना पत्ते, ना फूल, ना फल बस एक तना ही हमसाया था

रामदास वहाँ अपनी रोटी जुटा रहा था

पेड़ के किनारे बंसी बजा रहा था

इन बहरों को राग सुना रहा था

अपने प्राण बेमतलब लुटा रहा था

आँखे हर राहगीर पर टिकी थी

आखिर पेट की आस बंधी थी

कि कुछ बाँसुरियाँ शायद आज बिक जाए

चंद दिनों का खर्चा चल जाए

पिछला पूरा महीना उसनें बाँस छाँटनें में बिताया था

बड़ी मेहनत से बंसियों का गट्ठा बनाया था

हर व्यक्ति को वो तरसती निगाहें मोड़ तक छोड़ कर आती थी

पर किसी कि भी निगाहें इस बुड्ढे तक नहीं जाती थी

ऊपर जेठ कि दोपहरी चढ़ती, नीचे साँस,

साँवली देह जल कर कोयला हो जाती थी

लताऔं सी झुर्रियाँ थी, रामबाँस सी भौंहें

रह रह कर पसीना आँखों में आ ही जाता था

राम जाने माथे कि बूँदे थी या आँखों कि,

ये उम्र देह तोड़नें की तो थी नहीं

पर भाग्य शायद उसका बलवान नहीं था

वर्ना क्या उसका बेटा जवान नहीं था

घर में बहू बेटों का मान नहीं था

या गाँव में अपना मकान नहीं था

पर बेटे को कुछ बाड़ मार गई, कुछ टी॰बी॰

रह गए दो पोते और बेटे की विधवा बीवी

रामदास को संगीत से यूँ तो वैसे भी प्यार था

राग रागनियों में बचपन से होशियार था

चड़ती साँस के बावजूद बृंदावनी सारंग का एक भी सुर हिला नहीं

संगीत कि इस विधा का पर कोई सिला मिला नहीं

ना श्रोता, ना दर्शक, ना आह-वाह, ना ताली

ना धन, ना धान, बस पेट खाली

एक बार भी कोई सुन लेता तो मन्त्रमुग्ध हो जाता

पर किसी को व्यापार कि चिंता

किसी को प्यार कि चिंता

किसी को पैसों कि तो

किसी को घर-बार कि चिंता

यहाँ फुर्सत थी कहीं दफन

आधों के कान बंद थे

आधों के मन

इस भाग दौड़ की दूनिया में कहाँ मिलता किसी को ठहराव

ऐसा ही था वो नोएडा का अत्याधुनिक गाँव॥



सहसा उस अबोध बालक को बंसी के स्वर सुनाई पड़े

आस-पास मगर कोई ना दिखाई पड़े

माँ की अँगुली खुद ही छूट गई

वो दौडा़ ढूँढ़नें की ये तान कहाँ से आई है

ये धुन आखिर किसने बजाई है

ये राग उसे नाचने को कर व्याकुल रहा था

उसकी उत्सुकता को दे और बल रहा था

जैसे फूल अपनी जड़ों को ढूँढ रहा हो

जैसे धारा जानना चाहती हो अपनी नदी को

जैसे लोहे को चुम्बक खींच रहा हो

वैसे ही अपनी संस्कृति नई पीड़ी को खींच रही थी

उसे दिखाई दिया एक वर्द्ध व्यक्ति

जिसने साफ सुथरी सी धोती थी पहनी

और एक बड़ी ऊँची सी पगड़ी

माथे पे एक लम्बा चंदन का टीका

ना लाल, ना नारंगी, कुछ फीका-फीका

जिसकी सुगंध बच्चे को भा रही थी

जैसे बारिश में मिट्टी से खुशबू आ रही थी

बच्चे को उसे देखकर अपने दादा याद आ गए

जो गाँव में रहा करते थे

खेती-बाड़ी करते थे

ऐसा ही टीका लगाया करते थे

अनायास ही उसके मन ने सारे संकोच मिटा दिए

उसने उस वर्द्ध को जोर से आवाज़ दी

“अंकिल ये क्या है?”

उसने बाँसुरी की तरफ हाथ दिखा के कहा

रामदास ने बच्चे को देखा, आहा!

तीन फीट का बच्चा

छोटे से पाँव उनपर कच्छा

जिज्ञासा भरी आँखें, कितनी मिठी आवाज़

गोरा रंग, रंगीला अन्दाज़

" बाँसुरी है बेटा।

किसन जी बजाते थे।

सारे गाँवभर को इसी से नचाते थे

गोपियों संग रास रचाते थे

मुरलीधर कहलाते थे।

तुम्हे चाहिए ? "

बच्चे को आखिर और क्या चाहिए

उसने सर हिलाया

और तुरंत रामदास तक दौड़ा आया

" अंकिल आप मुझे सिखाओगे कैसे बजाते हैं ?"

कहते हुए वो और पास आया

कुर्ते को हाथ लगाया

नीचे को खींचने लगा

तभी माँ पीछे से आई

ज़ोर से चिल्लाई

" बिना पूछे कहीं भी चले जाते हो

किसी भी ऐरे गैरे से दोस्ती कर जाते हो

चलो घर बताती हूँ

अच्छा सबक सिखाती हूँ। "

इस एक ही वाक्य में खत्म हो गया बच्चे का सारा चाव

ऐसा ही था नोएडा का वो अत्याधुनिक गाँव॥



रामदास को जाता हूआ बच्चा

नहीं लगा अच्छा

वो बोला

" मेमसाहब ले लिजिए एक बंसी

बालक का दिल बहल जाएगा

बचुआ बड़ा होके बहुत नाम कमाएगा

माँ बाप के बहुत काम आएगा "

लेकिन हूज़ूर इस दौर कि ज़मीनी हकीकत है कि

लोग पैकेट में रखा कचड़ा तो सैकड़ों रुपयों में खरीद सकते हैं

पर खुले मट्ठे के दस रुपए भी लोगों को चुभते हैं

मोनिका भी रॉक और पॉप वाली पीड़ी कि थी

उसने जवाब दिया

" नहीं भैया ये तो जिद्दी है

अक्ल से अभी थोड़ा पिद्दी है

अब आप ही बताओ

बाँसुरी अब कौन बजाता है

ये तो बस किताबों तक रह जाता है

कितना कमाएगा इसे हाथ लगाके

क्या करेगा ये बंसी बजाके "

ये वाक्य जैसे रामदास की पूरी दुनिया उजाड़ गया

उसकी सारी मेहनत को कर कबाड़ गया

जैसे अन्त समय में ज्ञात हो

किसी वयोवर्द्ध सन्यासी को की भगवान केवल एक भ्रम है

किसी राजा को कि दान रुपया नहीं केवल कर्म है

किसी कट्टरवादी को कि प्रेम और क्षमा ही सबसे बड़ा धर्म है

उसने कभी सोचा भी ना था

कि ये भी दौर कभी आएगा

बंसी को कोई बस किताबों में ही पढ़ पाएगा

इसका भी अब उपयोग समझाना पड़ जाएगा

बचपन में खेल से मुँह फिराके

गाँव से बारह कोस दूर जाके

रोज़-रोज़ गुरू जी के पैर दबाके

कई सालों कि मेहनत के बाद ये हुनर सिखा था

एक साल तो सिर्फ ढंग से फूँक मारनें में बीता था

जब अस्सी के दशक में रामदास सर्कस में कमाता था

कभी एक हाथ से बंसी बजाता तो

कभी सिर्फ नाक से बंसी बजाता था

कभी दो-चार बंसियाँ साथ में बजाता तो

कभी बजाते-बजाते कलाबाजियाँ खा जाता था

शेर, भालू, बंदर, हाथी सबको बंसी पे नचाता था

वो भी एक दौर था

हड्डियों में बहुत ज़ोर था

सर्कस जब बंद हुए

खाने के निवाले खत्म हुए

तब भी अपने हुनर पे उसे नाज़ था

उसका दोस्त भालू भी तब सड़कों पे उसके साथ था

पर जब भालू को भी खिला नहीं पाया

उसे जंगल छोड़, फिर गाँव को आया

गाँव आकर वहाँ भी रंग जमाया

गाँव कि हो रामलीला

या शहर की कृष्णलीला

उसके बिना कोई भी कार्यक्रम कहाँ रंग लाता था

बच्चे-बड़ो-बुढ़ों सब को हँसाता था

तब उसनें सोचा ही नहीं था कि ऐसा भी एक दिन आएगा

इस कला को खत्म होता देख पाएगा

उसे कुछ देर तो होश ही नहीं रहा की

नीचे से जमींन सरक गई या मिट गए पूरे पाँव

ऐसा ही था नोएडा का वो अत्याधुनिक गाँव॥



मोनू बोला

" ले दो ना मॉम "

मोनिका सोच रही थी कि

मेरा ही बेटा आखिर ऐसा क्यूँ है

मिट्टी का माधौ, ज्यों का त्यों है

मेरी सहेलियाँ हिन्दी बोलती तक नहीं हैं

हिन्दी किताबें खोलती तक नहीं हैं

फिल्में तक फिंरंगी देखती हैं

कपड़े भी अतरंगी पहनती हैं

उनको मैं क्या कहूँगी

कैसे उनके ताने सहुँगी

ये तो किसी पाश्च्यात देश का सामान भी नहीं है

इसपे किसी ब्राण्ड का निशान भी नहीं है

अरे ये भी कोई म्यूजि़क है भला

बाकीयों के जैसे पॉप या रॉक सुन लेता

गिटार या पियानो चुन लेता

ये लड़का किसी दिन मेरी नाक कटाएगा

अब कौन इसे ये सारी बातें समझाएगा

कौन इसे बताएगा

कि सालों लगे हैं गाँव कि अपनी पहचान मिटानें में

ऐसी बड़ी सोसाइटी में खुद को फिट बिठाने में

हिन्दी को पूरी तरह भूल जानें में

खुद को पढ़ा-लिखा दिखानें में

इतना विलायती सामान जुटानें में

विदेशों के बारें में उन से ज्यादा जान पाने में

बाँसुरी बजाके अपना मज़ाक ना उड़ने दूँगी

स्टेटस तो किसी कीमत पर ना गिरने दूँगी

वो बोली

" मोनू, मेरे राजा बेटा,

हम पापा को ये बात बताएंगें

पापा मेरे बेटे के लिए गिटार लेकर आएंगे

हम अपने बेटे को ऍल्विस बनाएंगे

सब लोग फिर मोनू के फै़न बन जाएंगे।"

पर साहब बालहठ तो भगवान का एक रूप है

उसे काठ का गुड्डा पसंद है तो काठ का ही पसंद है

सोना भी फिर उसके आगे कुरूप है।

" मम्मी मुझे यही बाँसुरी चाहिए

अंकिल वाली बाँसुरी ही मुझे दिलाईए।"

बच्चा अड़ गया, रोने लगा

मोनिका के गुस्से को टटोलने लगा

केवल ब्राण्डेड सामान खरीदने वाली

चश्में से लेकर जूतों तक निशान परखने वाली

ब्राण्ड से मनुष्य की औकात तोलने वाली

सोच की अग्रगामिनी थी मोनिका

मोनिका ने फिर कोशिश करी

" बेटा गिटार तो इससे बहुत बड़ा होता है

और बहुत महंगा भी होता है

फिर तू क्यूँ इस सस्ते से बाँस के पीछे रोता है।

इसी बाँस में क्या है जो तू खोता है

हम पापा को ये बात बता देंगे

फ्ल्यूट ही चाहिए तो विदेशी पिकोलो मंगा देंगे"

पैसोंवालों को पैसों का ही फर्क हर जगह दिखता है,

पर संगीत तो साक्षात ज्ञान है, कहाँ कहीं बिकता है।

ज्ञान पैसों से नहीं, श्रम से कमाया जाता है

अभिभावकों को अक्सर ये भ्रम हो ही जाता है

की दस लाख रुपए में दस रूपए से ज्यादा ज्ञान आता है।

रामदास कुछ कहने को थोड़ा सा आगे बढ़ा

पर मोनिका ने दूर ही रहने का इशारा करा

रामदास जैसे व्यक्ति से वो बात तो कर सकती थी

पर उसे पास नहीं बिठा सकती थी

उसे रामदास की गंध बर्दाश्त ही नहीं हुई

क्यूँकि ताउम्र कभी मिट्टी की पहचान ही नहीं हुई

वो पूरी इत्र में नहा के आई थी

चंदन की खुशबू उसे कहाँ भाती

वो सदा फूलों से घिरी थी

चंदन कि सुगंध उसे मिट्टी सी जान पड़ी

कुछ अजीब-ओ-गरीब था ये नए पुराने विचारों का टकराव

ऐसा ही था नोएडा का वो अत्याधुनिक गाँव॥



रामदास आखिर हार कर बोला

"एक बाँसुरी लेती जाओ मेमसाहब

फिर चाहे तो पैसें मत देना

चाहो तो किसी से कुछ मत कहना

मैं मान लूँगा मैंने अपने पोते को दिया

ऐसा भी क्या धंधा जो ना किसी रोते को दिया

वैसे भी कौन सी बिक रही है

कुछ गठरी ही हल्की हो जाएगी

इस बूड्ढे को सौ ग्राम की राहत मिल जाएगी"

मोनिका को ये अपमान सहन नहीं हुआ

हज़ारों बार तो चंदा देती हूँ

फिर भी सर पे चढ़ते हैं।

हौसंले इनके दिन-ब-दिन बढ़ते हैं।

उसनें पचास का एक नॉट निकाला

धरती पर ज़ोर से पटका

और कहा

"ये लो और जाओ

नहीं खरीदनी कह दिया ना

बेकार की चीज़ लिए फिरते हो।

फिर जुबान लड़ाते हो

बच्चों को बरगलाते हो

नहीं खरीदना ये कबाड़

तुम भी जाओ भाऽऽ..ड़…"

वाक्य पूर ना हुआ, मोनिका चुप हो गई

जमीन पे पाँव पटका और

मोनू को खीँचती ले गई

बच्चा जाते-जाते भी टक-टकी बाँधे रामदास को देखता रहा

रामदास कभी उस बच्चे को देखता

कभी उन रुपयों को

जिनकी खातिर वो घंटों धूप में जला था

साँसे बेचकर जिसे कमाने घर से चला था

जो अब सड़क पे यूँ पड़े थे

मानो उनका कोई मोल ही ना हो

जिनकी उसे जरूरत भी थी

और जो उसे उठाने का मन भी ना किया

पैंसों को हमेशा लक्ष्मी समझ के पूजा था

तो सड़क पे छोड़ जाने का मन भी ना किया

उसे समझ नहीं आया किस विक्लप का करें वो चुनाव

कैसा अजीब था ये अत्याधुनिक गाँव॥



आज उसे वो दिवार फिर से दिखाई दी

जिसके खिलाफ इतने सालों लड़ा था

ठाकुरों के कुएँ में लट्ठ लेकर जब अड़ा था

मनु स्मृति जलाने के जुर्म में उसे पकड़ा था

एक-आध बार तो जेल में भी पड़ा था

ये दिवार नया छदम् रूप धरे फिर से खड़ी थी

जितनी उसनें कम की थी उससे दुगूनी बड़ी थी

इसी दिवार नें बचपन में उसे पाठशाला जाने से रोका

साथ बैठकर दोस्तों के खाना खाने से रोका

यमुना में सुबह-सुबह नहाने से रोका

ब्याह-बारातों को खुल के ले जाने से रोका

जीने से रोका, मर जाने से रोका

मरने के बाद मोक्ष पाने से रोका

इस दिवार के बस नाम बदलते रहे

उसने फाँदी थी अछूत नाम की दिवार

उसे लगा बस अब खत्म हो गई दिवार

पर मिरासी नाम से वो फिर भी वहीं खड़ी थी

उसे लगा था सुराज है, बेटे को तो समाज खूब करेगा प्यार

पर फिर बेटे के आगे आ गई हरीजन नाम की दिवार

जिसके पार खड़ी थी अनूसूचित जाति की दिवार

ये दिवारें चोला बदल कर आती थी

और इंसान को इंसान से अलग कर जाती थी

मिरासी, हरीजन, दलित, अछूत ये नाम सीने को भेद जाते थे

बड़े नाम वाले इन्हे सुन पास ना आते थे

उसे लगा था चलो अब यहीं पर ब्राह्मणवाद समाप्त होता है

संस्कृत और संस्कृती के आधार पर अब कहाँ बंटवारा होता है

उसे लगा था भाषा और रितियों से समाज आगे बढ़ गया है

नया दौर, नई उचाईयाँ चढ़ गया है।

उसे लगा था उसके पोते कम से कम समाज में इज्जत पाएंगे

नई पीड़ी, पुरानी पीड़ीयों वाली गलतियाँ ना दोहराएंगे

मेरे लाडले मिरासी नहीं कलाकार बन जाएँगें

बाप-दादा के ज्ञान को फिर से आगे बढ़ाएंगे

पर हाय री किस्मत जो-जो उसे लगा था

सब आज बहुत ज़ोर से दिल पे लगा था

उसका मानना था कि अगर ब्राह्मण हमें

संस्कृत सीखा देते, रीती-रिवाज समझा देते

तो क्या हम भी खुद को पण्डित नहीं बना देते

सालों से गीता के श्लोक कंठस्थ कर रहा था

पर अब तो दीवार ही बदल गई

इस उम्र में अंग्रेजी, गिटार, पियानो, ये सब कहाँ से सीखे

तभी एक तपतपाती गर्म हवा चली

जो उसे यादों के झंझावातों से निकाल चली

साथ ही नोट को भी ले उड़ी

वो नोट यूँ भी उसकी गरीबी पर तमाचा था

तमाचा लगता है तो नींद टूट ही जाती है।

यादों से जागा तो खुद को मैट्रो किनारे ही पाया

वही कीकड़, वही सड़क, वही भूख और वही भूखा

संस्कृति और सभ्यता के नाम पर मानवता का सूखा

उसकी सारी यादों को बहा चला जलती लू का बहाव

उसके पुराने गाँव सा ही तो था ये अत्याधुनिक गाँव॥



ना इज्जत मिली, ना पैसा

पर इतना ज्ञान जरूर मिल गया

कि उसे ये सब कभी नहीं मिलेगा

समाज नए तरीके लेकर आएगा

और फिर एक नई दिवार खड़ी कर जाएगा

ताउम्र एक आस के सहारे लड़ा था

आज वो आस ही मर गई

बुड्ढी हड्डियों की जान निकल गई

पाँव लड़खड़ाने लगे

और बाँसुरीयाँ अब बोझ लगने लग गई

ये गठरी अब और सम्भाली ना गई

और सम्भालता भी किसलिए

इस भूख और दरिद्रता से अच्छा हो जाता

की कहीं साग सब्ज़ी ही बेच पाता

आखिर वहाँ तो कोई ठप्पा नहीं देखा जाता

अपने पेट को किस्मत के भरोसे

और सारी बाँसुरियाँ को सड़क के भरोसे छोड़

वो लाठी टेक कर घर को बढ़ने लगा

जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर चढ़नें लगा

कभी पलटता, कभी चलता

कुछ दर्द सीनें में रह गया

कुछ दर्द आँसुओं में बह गया

पर किसी से कुछ ना कह गया

सारे ग़म चुपचाप सह गया

बंसी, राग , ताल , सब कुछ छोड़

एक गुमनाम कलाकार, गुमनामी में ही सिमट कर रह गया

और मैट्रो में अभी भी हर साँस एक दुनिया लगातार चड़ रही थी

और एक दुनिया लगातार उतर रही थी

एक सिधी कतार में, सर को झुकाए

कोई रॉक सुनता, कोई पॉप गाता

कोई जैज़ सुनता, कोई रैप गुनगुनाता

अन्जाने में ध्रुपद का खुल के मज़ाक उड़ाता

किसी ने भी उस थैले की और ध्यान नहीं दिया

जिसमें कुछ छेद किए बाँस पड़े थे।

स्वदेशी साज-ओ-सामान पड़े थे

समाज जड़ों को नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़नें लगा

परन्तु कालचक्र आखिर दुबारा अपनी गति पकड़ने लगा

पहिए के नीचे को ऊपर, ऊपर को नीचे करने लगा

ऐसा तो कोई दौर था ही नहीं जब हम नहीं थे या तुम नहीं थे

ऐसा कोई दौर आएगा भी नहीं जब हम नहीं रहेंगे या तुम नहीं रहोगे

हम-तुम की बहस तो हर दौर की कहानी थी

हर इतिहास की मुँह ज़ुबानी थी

जिंदगी सबको इसी के संग ही बितानी थी

उस गठरी पर कुछ गरीब बच्चे टूट पड़े

छीना झपटी शुरू हो गई

उनके हाथ तो मानों खजाना लग गया हो

सब आपस में बाँसुरियाँ बाँट गए

अपने अपने किरदार छाँट गए

बच्चे नाचने गाने लगे

ख्याली पुलाव बनाने लगे

रामदास के बुढ़ापे ने हार मानी ली थी

इन्होने तो अभी कोशिश भी नहीं की थी

इनमें रूप था, यौवन था

हड्डियों में जान थी

सपने रंगीन थे, सजीव थे

सपनों में बहुत ऊँची उड़ान थी

बालकों को ना तो दिवारों का ज्ञान था ना डर

दिवारें खुद-ब-खुद हट गईं

बालकों कि किलकारियों ने कालचक्र को फिर चलने का आदेश दिया

सपने फिर से सजने लगे,

कलाकार बनने के

कृष्ण बनने के, कृष्णदास बनने के

एक बड़ा आदमी बनने के

एक नामी उच्छावास बनने के

रामदास ने ये सारा खेल पीछे से देख लिया

मानों उम्रभर का सारा माल आज बेच दिया

बूढ़े सपनों को फिर मिली पहचान

जिस्म में वापस समा गए प्राण

मुरझाए होठों पे झूम ऊठी मुस्कान

नौसिखियों की धुन पे फिर शुरू हो चला कालचक्र का ये घुमाव

ऐसा ही था नोएडा का वो अत्याधुनिक गाँव॥

ऐसे ही होते हैं, हर युग - हर दौर के गाँव॥