अध्याय 27 ॥ सिमटती दूनिया ॥
26 सितम्बर, 2010 ग़ज़ल
भीड़-भरी सड़कों पर चैन से चलने का हक नही
बारूद सी हवाएँ अब साँस लेने का हक नही॥
आँखों मे आँसू चेहरों पर मायूसी छाई है
कैसे कहूँ इनकी मुस्कानों पर मुझे कोई शक नहीं॥
इस बूढ़े बैल को आज हलाल करके खायेंगें
ताऊम्र की अपनी मेहनत का आज बैल को हक नहीं॥
बचा ना पॅंछियों का शोरगुल ना उनकी फड़फड़ाट
इस लालची संसार में इन मासूमों की जरूरत नही।।
बिल्ली ने नही इंसानों ने रास्ता काटा है मेरा
अब तो आगे बढ़ने की बिल्कुल भी हिम्मत नहीं।।
मैं कई सहरा पार करके पहुँचा था इस शहर में
अल्बत्ता ये शहर उस दरिदॅंगीं से कुछ कम नही।।
ये वक्त की आँधी कहीं मेरी यादें मिटा ना दे पर
इस शहर में छिपने को ठहराव का कोई बरग़द नहीं।।
मुझे निचा दिखाते हो इन छोटी इमरातों के गुरूर में
तुम सोचते हो मेरे गाँव मे इससे ऊॅंचे पर्वत नहीं।।
तेरा मानना है अल्लहड़ गॅंवार इंसान नहीं होते
मैं जानता हूँ तेरे चापलूसी तौर तरीकों में शराफ़त नहीं।।
इस तरह उड़ेलो ना अदाओं में इतनें ईशारे
मैं समझ चुका हूँ इनमें केवल भूख है मोहब्बत नहीं।।
जाने क्यूँ कठोर लगता तेरा ये अपनापन भी मुझे
जाने क्यूँ इनमें माँ के चाटों सी नज़ाकत नही।।
तुम्हे तराशा है इस जमाने ने प्रैक्टिकल लालची की तरह
तुमसे बस हमदर्दी होती है नफ़रत नही॥
सारा दिन जीवन की चक्की में डाँट-पिटकर पिसूँ
अब तो घर में चैंन से सोने की भी फुर्सत नहीं।।
जिंदा रहने के लिए ये जि़ल्लतें झेलता रहता हूँ
अब तो इस तड़प पर मुझे रोने की भी आदत नही।।
लाखों रूपये की जमीन मैं लाऊँ कहाँ से
या खुदा तेरी धरती पर मेरे लिए अब दो गज़ नही।।
मज़लूमों की भुख को देख, तड़प को समझ
फिर बोल ये दुनिया आज भी दुनिया है दोज़ख़ नहीं॥
ये जो डाल रहे हैं तेरे मंदिर में भरके चढ़ावा
ये बहाने है, दिखावा है, इसमें कोई भी इबादत नहीं॥
कुछ डर है, कुछ लालच, तभी तेरे मंदिरों में आता हूँ
असल में अब तुझसे कोई भी मुहब्बत नहीं।।
ये रिसालें, ये किताबें, ये पुजास्थल सब जला दो
रब तेरे होने ना होने से अब किसी को कोई फर्क नही।।
॥भीड़-भरी सड़कों पर चैन से चलने का हक नही॥
॥बारूद सी हवाएँ अब साँस लेने का हक नही॥