अध्याय 63 ॥ बिरह ॥
14 सितम्बर 2017
ना वो थी, ना मैं था, सिर्फ ये वक्त खराब था।
ना जाने ये दौर मेरे किस दौर का हिसाब था॥
ना कोई हंसी, ना अठखेलियां, ना वादे, ना क़समें
लगता है मेरी जिंदगी भी तेरा ही इंतखाब था॥
बहुत कोशिश की शायद मुट्ठीभर तो रह जाए
पर वो जैसे पानी में झाँकता कोई माहताब था॥
हथेली पे लहू भी और नज़ाकत का एहसास भी
कोई बताए मेरे हाथ वो काँटा था की गुलाब था॥
कई रातें बैठ कर घंटों सोचा होगा उसने मुझे
आज उसके पास मेरी हर बात का जवाब था॥
उसे फर्क नहीं पड़ता तेरे मरने से भी अब तो
उस जिस्म में जाने कौन कभी तेरे लिए बेताब था॥
याद आए गर कभी तो छुपकर अश्क गिरा लेना
माना ताउम्र ना था फिर भी ये रिश्ता लाजवाब था॥
बीती बातें छोड़ अब हकीकत में वापस लौट जा
हसीन तो बहुत था मगर महज़ एक ख्वाब था॥
ना वो थी, ना मैं था, सिर्फ ये वक्त खराब था।
ना जाने ये दौर मेरे किस दौर का हिसाब था॥