अध्याय 15 ॥ रोने की वज़ह ॥

सितम्बर, 2007, मेरे जिगरी दोस्तों से मेरी अनबन हो गई थी। रात को बाहर बारिशहो रही थी और मैं बारिश में बैठा रो रहा था। मैं पूरी रात भर जाने क्या- क्या सोचता रहा। और सुबह उठा तो मेरा दोस्त कॉलेज निकल चुका था टेबल पे एक नोट छोड़के जिसमें लिखा था‘I am Sorry’साथ में एक मुस्काता चित्र भी। ये थी हमारी दोस्ती, ये वाक्या मैं ताऊम्र याद रखूँगा। मैं मुस्काया और पैन लेकर बैठ गया, आखिर अब मुझे कविता लिखने का एक कारण और भी मिल गया था।

॥ रोने की वज़ह ॥


देखा है मैने बादलों को सिसकते

रिमझिम गिरती बारिश की बूँदों के साथ

चाँद को तड़पते देखा है मैने,

पानी में चमचमाती, चाँदनी के साथ

है अरबी के पत्तों पर, ओस की पिघलती शब

है लताओं पे यूँ टहनियों से लिपटने का ढ़ब

हाँ देखा है मैने, सुनसान रात को

कहकशाँ में जगमगाते तारों के साथ

ऐसे ही कुछ मैं भी तड़पता हूँ

पर तरसती भीगी आँखों के संग होता हूँ

मैं जब भी रोता हूँ

ना जाने क्यूँ तन्हा और अकेला ही होता हूँ ।।


तूल-ए-सफर में हमनफ़ज़ के सहारे नही मिलते,

टूटी कश्ती को साहिल के किनारे नही मिलते,

जिस्त लहूलुहान हैं यों फाँकों से

फिर भी नामुराद मंजर है देखो

के फटे होंठों पर भी मुस्कुराहट है हमारी

और जिस्म पर लहू के नज़ारे नही मिलते

है बंद ये, अॅंधेरा है,

बिखरा है, यूँ कमरा हमारा

बस यूँही कुछ भूली-बिसरी यादों के संग होता हूँ

मै जब भी रोता हूँ तो,

जाने क्यूँ तन्हा और अकेला ही होता हूँ….!


ताऊम्र तो नही पर अरसा जरूर बीता है

भीड़ में यूँ खुद को छिपाने में

अपने ग़मों को बंद करके

यारों की हॅंसी में मिलाने में

झुकी हुई पलकें और आँखों में नमीं

सीने में दर्द और सिसकियाँ गले में दबी

हाय! के तुम क्या जानो क्या मजा़ है यूँ मुस्कुराने में

महफि़लों में भी मैं अपने दिल की दरारों में पड़ी

टूटी गहरी तलब के संग होता हूँ

मैं जब भी रोता हूँ,बस अकेला और तन्हा ही होता हूँ…..।।


हाथ उठते है, बढ़ते हैं, पर बेबस हवा

किसी गिरे हुए का सहारा नही होती

दूनिया के कौन से कोने में जाएगी वो आवाज़

जो बंजर दिवारों को भी गॅंवारा नहीं होती।


फिर भी सब बढे़ जा रहे हैं

है चूर-चूर जिस्म मेरा

और हम उसे ज़ार-ज़ार करे जा रहें हैं

इसे सनक कहिए या पागलपन

के हर शय ने खुरेदा है इतना हमें

कि अब तो बेरंग हवाओं से भी हम डरे जा रहे हैं

विरानों में भी मैं अपनी शख्सियत से रूबरू होता हूँ

मैं जब भी रोता हूँ,

अकेला, बस अकेला, और अकेला ही होता हूँ…..!


मेरे तल्लफुज्ज़ को पन्नों की पनाह नही मिलती

मेरे शब्दों को लकीरों की राह नहीं मिलती

हर बहर में तलब मिल जाती है शेअर लिखने की

पर कम्बख्त वो कराह नही मिलती

मैं खुद में खोया अपनी ही आँहों के संग होता हूँ

मैं जब भी रोता हूँ

ना जाने क्यूँ, अकेला ही होता हूँ

तन्हा और अकेला ही होता हूँ ।।


आँखों में उभरा, पलकों से लिपटा

चूँता हुआ, गालों पर जा टपका

बस बहता रहा वो मुझको भिगोकर

और यूँही छोड़ जाने को हुआ

मैने पुछा,“क्यूँ रे तू भी चला?”

आँसू बोला, “तेरी आवाज़ दूसरों की आवाज में घूल जाती है।

तेरी हॅंसी यारों के होठों पे मुस्कान बन मीलों फैल जाती है।

पर बेगै़रत आँसुओं को तो खुद तेरी आँखों में पनाह नही मिलती।

पिघलता है आँसू पर इसके ठहराव नही होते

बहता है आँसू पर इसके पड़ाव नहीं होते

तेरे सारे ग़मों को बहाए लिए जा रहा है वो साकी

जिसके खुद के दुःखों के हिसाब नही होते

मैं हजा़रों में ही हूँ फैला पर होकर भी उनमें मैं कहाँ होता हूँ ।

अरे मैं खुद जब भी रोता हूँ तो

तुझसे भी ज्यादा तन्हा और उदास होता हूँ ।”


अब जाना की खुशी तो एक विकल्प है जो शायद मैं चुन सकता था

मैं दर्द में नहीं हूँ खुद दर्द भी मैं ही हूँ, मैं जब भी अकेला या तन्हा होता हूँ

क्या सिर्फ तब ही रोता हूँ?,हाँ, मैं जब भी रोता हूँ,शायद या सच में ही

सिर्फ अकेला और तन्हा होता हूँ…..बस अकेला और तन्हा होता हूँ……!