अध्याय 40 ॥ जरूरत ॥
6 जून, 2015। मैं हमेशा से मानता हूँ की जिंदगी जितना तपाती है आदमी की चमक उतनी ही तेज होती जाती है।
नाचीज़ को तपा तपा कर औकात से बड़ा काम करवाती है।
लोग नहीं जानते की जरूरत आदमी को आदमीं बनाती है।
अगर आदमी एकाग्र हो तो जिंदगी फिर गुलेल बन जाती है
नाकामी जितना पीछे खींचती है उतनी आगे छोड़ के आती है।
पिछली शताब्दी में कोई अमीरजादा साइंसदान नहीं हुआ
कुछ तो बात है के ये दौलत सिर्फ गरीबों के हिस्से में आती है।
ये पीड़ी बहुत जल्दी हथियार छोड़ अवसाद में चली जाती है।
इसने देखा नहीं है की भुखमरी हौसंलों को जीना सिखाती है॥
तुम्हारी जरूरत है की तुम्हे हर चीज़ आधेदाम पे चाहिये
कभी सोचा पर इसमें तनख्वाह आधी मेरी मारी जाती है।
चैत में, पहले अनाज का हम गाँवभर में लंगर डालते थे
इस फाइव स्टार में तो रोटियाँ भी नाप तौल के बनाई जाती हैं।
अपने नीम का पेड़ छोड़ आ बैठा हूँ इन इमारतों के जंगल में
सोचता हूँ शाम को ये चिड़िया अब किस डाल पे जाती है।
खैर यूँही क्यूँ करूँ किसी के ग़मों को मैं बयाँ आखिर
मैं जानता हूँ कि कौन सी जरूरत किस को क्या क्या बनाती है।
नाचीज़ को तपा तपा कर औकात से बड़ा काम करवाती है।
लोग नहीं जानते की जरूरत आदमी को आदमीं बनाती है।