अध्याय 16 ॥ हताश ॥

जनवरी 2009, मेरी सिर्फ 49 प्रतिशत आए और वो असल में किसी काम के नहीं थे। मै कोई भी ढ़ंग के कॉलेज में प्रवेश पा सकता था लेकिन मैं दाखिले कि परीक्षा में भी नहीं बैठ पाया। और मेरे सारे दोस्त मुझसे आगे निकल गए। मैं अपनी जि़ंदगी से ही परेशान था। लोगों की हॅंसी ताना बनके चुभती थी। और मैं किसी को भला क्या कहता।।

॥ हताश ॥


रोता था मैं मुरझाता भी था

पर होंठों को मुस्कुराहटों की ऐसी तलाश कभी ना थी।

मायूसियाँ तो पहले भी आती थी जि़दगी में

पर खु़द जि़ंदगी मेरी इतनी उदास कभी ना थी।

हर ठोकर पर एक नया जूँनू जगता था

टूटता था जिस्म फिर भी दौड़ा करता था।

पर इस तरह टूटी हुई आस कभी ना थी।

अपने बदन को समेट कंधो पे ढोए जाता हूँ।

हाय! जिंदगी मेरी इतनी उदास तो कभी ना थी।

दलदल हैं हर जगह,

ना अपना–पराया ख़ींचंने को यहाँ

मैं इन्सान से कीड़ा बन गया हूँ

और जहाँ बन गया है कहकशाँ

मैं तो उखड़ा सा पहले भी रहता था

पर ये दूनिया ऐसी चुपचाप कभी ना थी

हर रास्ते पर अलग रंग अलग मंजि़ल थी

आज ना रास्ते हैं ना मंजिल

मैने कभी कुछ हासिल नही किया

पर मुझे मंजि़लों की यूँ तलाश कभी ना थी

हाथों की लकीरें अब दरारें बन गई

किस्मत जहाँ धकेलती है वही राहें बन गई।

ना मकसद, ना तलब, ना ही सोच हैं किसी की

बस होठों पे ख़ुशी आई तो आँहे बन गई।

थोड़ी सी ही सही कुछ प्यास तो थी

उस प्यास की प्यास कभी ना थी

उन्मुक्त गगन का पंछी था मैं,

सोच भी बड़ी थी

इतना ऊॅंचा कौन उड़ सकता है,

कहकर दूनिया पीछे पडी़ थी।

ना मुझे चलने ही दिया ना रेंगने का ही मौका दिया

हर मोड़ पर कभी अपनों नें कभी किस्मत ने धोखा दिया।

आज मैं हूँ बंद कमरों में इस-जैसी दिवार कभी ना थी

अब जीने की वजह नहीं मिलती

मैं हूँ खाईयों में बसा यहाँ से राहें नही दिखती

उदासियाँ तो पहले भी थी जि़ंदगी में पर

ज़िन्दगी निराश कभी ना थी।

बस ऐसी हताश कभी ना थी………….!