अध्याय 24 ॥ एकं सत् विप्रा बहुधा वदंती ॥

9 मार्च, 2015 मैंने किताबों में जो सच ढूँढा उसे अपने शब्दों में लिख दिया।


॥ एकं सत् विप्रा बहुधा वदंती ॥


अब कौन जाने कहाँ है वो पवित्र अद्भुत रहस्यमयी ज्ञान , जिसे कहते हैं - सत्य

सत्य कभी शेर सा खुल्ला घूमा करता था पर अब वो शेर शिकार हो चुका है

बन्दूक सा झूठ ही आज के दौर का नया सत्य बन चुका है

सत्य अन्ततः जीतता है पर आखिर कौन सा सच, यहाँ तो सच गट्ठरों में भरे जाते हैं।

यहाँ हैं बस पुते हुये रंगीन सच, जो पास से श्वेत और दूर से सफेद नज़र आते है।

हैं कुछ काले सच जो आम आदमी को सिर्फ परदे के पीछे से दिखाये जाते हैं।

अब आखिर क्या है ये किताबी ज्ञान सा शाँत लहराता भगवा, श्वेत और हरा सच


हर किसी के पास अपना-अपना सुविधानुसार व्यक्तिगत सच है, सोने सा।

और हर जाति-धर्म-वर्ण-रूप के सत्य को भ्रम हैं अपने पूर्णसत्य होने का।

ईन मसीहाओं ने चिल्लड़ों के ऊपर नस्लें बरबाद की और दिया - अपना सच

हिन्दू-मुस्लमान, अमीर-गरीब, बाईबल-कुरान-पुराण का अपना सच

पर जिसे तुमने कभी महसूस ना किया हो वो सच भी कोई सच है कहीं

पूर्णसत्य वो है जो एक तरफा नहीं, जिसेमें कोई स्वार्थ नहीं, नफरत नहीं

किस किताब, किस भाषण में है वो सच जिसे मैं कह सकू – मात्र सही

आखिर कहाँ हैं वो ‘ इक ॐकार सतनाम् ’ सा सबका सच


सच लगता है किसी लम्बे धागे सा जो लोगों की जेब में पड़ा-पड़ा उलझ गया है

इस धागे को सुलझाते-सुलझाते हर छोर ही दोमुहा हो गया है,

कौन जाने अब छोर भी कितने हो चुके हैं, पर मैं किसी छोर को तोड़ नहीं पाता हूँ

मैं लाख कोशिशों के बाद भी ईन करोड़ों-करोड़ सचों को जोड़ नहीं पाता हूँ

फिर उनपे से अलग करनें हैं कुछ पुराने सच, अँधविश्वासी सच, अफवाह और मनगण्तं सच

अब कौन इतना धैर्य देगा, वक्त देगा और सुलझायेगा वो ब्रह्मलिंगरूपी धागे सा एकमात्र सच


या फिर तुम मान लो कि ये असीमित ज्ञान का राग तुम्हारी समझ से परे मात्र एक शोर है।

तुम्हारी छोटी बुद्धि इसके स्मरण और आँकलन के लिये अभी बहुत कमजोर है।

पर अंहकारवश तुम अपने छोटे से ज्ञान को मान लेते हो – पुर्ण और अविवादित

तुम निर्दयी क्रूर सत्याण्वेशीयों से तो मैं झुठा ही सही हूँ।

कमसकम मैं बात करता हूँ भाईचारे की, प्यार , क्षमा, दया, जीवरक्षा की

मैं बात करता हूँ पशु-पक्षियों के रक्षण की, एक ईश्वर, एक कौम, एक सच की

और महात्मा बुद्ध ने कहा था कि ’ केवल बचाने वाला ही बात करता है– पूर्णसच की।’

अब मैं क्यूँ गलत हूँ तुम ही समझा दो, कोई मुझे बौद्धिक पुर्णसत्य से मिला दो।।