अध्याय 33 ॥ जन्मदाता ॥

2012, याद नहीं ये गज़ल कब लिखी थी। पर मुझे मेरी किताबों में पड़ी मिली–

॥ जन्मदाता ॥


वो किताब पढ़ के मैं मुस्काया जिसके हर सफ़े पर ग़म का फ़साना था

की चलो रोकर ही सही दो दिन तो काटे जिन्दा रहने का ये भी खूब बहाना था


गज़ब तेरी खुदाई है मेरे मौला तेरा नाम लिया तो दर दर भटका

तेरा नाम छोड़ मैने दग़ा दी तो सर ऊठाये मेरा भी एक हसीन आशियाना था


मैने पाला, मैने सींचा बड़ा लगाव था बचपन से फिर मैं

फूलों को तोड़ लाया आखिर उन मासूमों को एक पत्थर पर जो चढ़ाना था


उसे लगता है मैने नहीं उसने मुझे ऊम्रभर पाला, पोसा, बड़ा किया

इस बुड्ढ़े पर आखिर नाकाबिलियत का ही एक इल्जाम लगाना था


तरसती निगाहों से दहलीज पर बैठा रहता हूँ बस जिंदा रहने के लिये

अपनी तमाम मेहनत को आखिर अपने बच्चों पे जो उड़ाना था


जो ये भूल गए उन्हे ये इल्म नहीं है की तमाम समंदर खरीद लाओ

प्यास बुझाने के लिये तो खुद दरिया को भी इसी नदी तक आना था


कौन सा जन्म, कौन से कर्म, कितने जन्म कितने कर्म सब अजीब

जिन्दगी तुझे भी एक बार जिंदगी के इस भॅंवर में फसाना था।।


॥वो किताब पढ़ के मैं मुस्काया जिसके हर सफ़े पर ग़म का फ़साना था॥

॥की चलो रोकर ही सही दो दिन तो काटे जिन्दा रहने का ये भी खूब बहाना था॥