अध्याय 3 ॥ मुक्तक ॥


3.1 ॥ मुक्तक 1 ॥


मेरा पहला मुक्तक

तनहाइयों को दुःख का सागर समझा मैने

मुस्काता एक साया मगर पड़ता रहा मुझपर

जिस शोरगुल को खुशी समझता रहा

कहीं वही तो किनारा नहीं था ग़म का।


3.2 ॥ मुक्तक 2 ॥


ऐसे कितने आदमी होते हैं जिनके लिए कोई दिल से रोता है?

ऐ! मेरे खुदा मेरी इस बंदगी का,

ईबादत का ईतना सिला तो दे,

ना फूल, ना सोना-चाँदी दे

मेरी लाश पर दो बूँद आँसू मिला तो दे


3.3 ॥ मुक्तक 3 ॥


हर किसी की किस्मत है अपनी

वरना चाहकर कोई ग़रीब नहीं होता

पास हर किसी को दिखता है सूरज

पास दिखकर भी मगर वो क़रीब नहीं होता


3.4 ॥ मुक्तक 4 ॥


मैने ये दसवीं के विदाई समारोह पर लिखी थी। हम स्कूल छोड़कर जा रहे थे और वहाँ मानो उत्सव मनाया जा रहा था जिसे समझना मुश्किल था।

ये हमारे चले जाने की खुशी है

या ग़म का दीदार ही कुछ इस तरह हुआ है

छलक रही है बेवफाई आँखों से

या फिर प्यार ही कुछ इस तरह हुआ है

पतझड़ के जुदा मुरझाए पत्तों को

जोड़ा जाता है ग़म से शायद

या फिर बहारों के आने का

इज़हार ही कुछ इस तरह हुआ है।


3.5 ॥ मुक्तक 5 ॥


और ये बारहवीं के विदाई समारोह पर लिखी थी

ये मौसम, ये समा

कभी आते हैं, कभी जाते हैं

ये यूँही आते जाते रहेंगे।

हाय! के आवारा झोंका हूँ फजा़ में ऐ दोस्तों

ये मंजिले, ये काफिरे, ये हवाएँ

मुझे संग अपने बहाते रहेंगें।

खिले हैं जो गुल गुलिस्ताँ में आज

ओस कि बूँदों में डूबे, पत्तों का आँचल ओढ़े

उफ! के काँटों की सेज पर वो भी मुरझाते रहेंगें।

ना करना मगर कभी गि़ला के संग तेरे नहीं मैं आज

हम तो याद बनकर

दिल में तेरे सदा यूँहीं मुसकाते रहेंगें।

हंसते-हंसाते रहेंगें, रोते-रूलाते रहेंगें

तुझमें साँसों की तरह समाते रहेंगें

के जब भी झाँकोंगे दिल में अपने

हम मरकर भी संग तेरे सदा यूँहीं गुनगुनाते रहेंगें।