अध्याय 61 ॥ रुहानी ॥

9 जून, 2016


॥ रुहानी ॥


वो जिस्म-ओ-जाँ की बातें, ये हुस्न-ओ-यार की बातें।

कौन करता है अब इस दौर में रुह-ओ-प्यार की बातें॥


इक बार कोई हमसे कर ले गुल-ओ-गुलज़ार की बातें

चाहें फिर उम्र भर कभी ना करें कोई बहार की बातें ॥


वो सूरत दिन-ब-दिन कुछ धुंधली होती जाती है पर

याद हैं लफ्ज़-ब-लफ्ज़ हमको उनकी हर बार की बातें॥


मेरे मासूम को आदत है हर रात मेरे काँधे पे सोने की

और अजीब गिला है हम करतें नहीं इख़्तियार की बातें ॥


जिस्म से बेहद कस के लिपट हमें और तड़पाते हैं वो

फिर होंठों के करीब आकर करतें हैं इंतजार की बातें ॥


शक गुस्सा बनकर हमेशा छोटी नाक पे रहता है उनके

उन्हें फिर फिज़ूल लगती हैं ये सारी ऐतबार की बातें॥


वो रुस्वा हैं की ये जोगी समझता ही नहीं है दुनियादारी

इस चेहरे के आगे बोलो कौन कर सकेगा संसार की बातें ॥


मैं काफिर जरूर हूँ पर तुझ से ज्यादा करीब हूँ मैं उसके

अलग नामों से रोज करता हूँ मैं तेरे परवरदिगार की बातें ॥


ये सारा जहाँ बस हम दोनों के मिलनें से ही चलता है जब

मेरे खुदा, तेरी किताबों में क्यों है गुनाह दिलदार की बातें॥


मुझे बस एक बार इस गुनाह की इजाजत दे दे, मेरे ईसा

चाहें फिर कयामत तक ना हो मेरी रुह से करार की बातें ॥


इस जिस्म से जीने की आरज़ू ही खत्म ना हो जाए कहीं

यादों के मयखाने से दो घूँट दे जा उनके दीदार की बातें ॥


वो जिस्म-ओ-जाँ की बातें, ये हुस्न-ओ-यार की बातें।

कौन करता है अब इस दौर में रुह-ओ-प्यार की बातें॥