अध्याय 42 ॥ आशिकी ॥

8 जुलाई, 2015


॥ आशिकी ॥


उनका शर्माकर अपने आँचल में छिप जाना अच्छा लगता है।

बिना इज़हार के हम पे ईतना हक जताना अच्छा लगता है॥


कभी मैं सोचता हूँ कि ये बस एक खेल ही तो है हमारे लिये

तभी उनका हमारी बाँहों में डर के सहम जाना अच्छा लगता है॥


मालूम नहीं है, ये सच में कुछ है या बस हमारी दिल्लगी है

फिर भी उनपर सबकुछ बिना शर्त लुटाना अच्छा लगता है॥


हूज़ूर, मुहब्बत कोई ज्वाला नहीं है एक मासूम सी लौ है बस

इस हसीँ दिये को पूजा की थाल में सजाना अच्छा लगता है॥


उन्हे पता है, कशिश शक्ल में नहीं सिर्फ मासूमियत में होती है

उनका निगाँहे झुकाके हौले-हौले बतियाना अच्छा लगता है॥


बेहयाई रिश्तों को बदनाम करने के लिये काफी है मगर

उनका सादगी से हर रिश्ता बअदब निभाना अच्छा लगता है॥


हवस, जिस्म को राख और नजाकत को धुआँ बना देती है,

उनका कसम देकर रिश्ता और मान दोनो बचाना अच्छा लगता है॥


इस दौर के आशिक मुझे लगते हैं कुछ अजीब जल्दबाज़ी में

कोई इन्हे समझाओ, धीमी आँच में पका खाना अच्छा लगता है॥


उनसे प्यार करने को अब भी कोई कैसे ना मजबूर हो ऐ! खुदा

उनका बिन बताए चुपचाप सोमवार रख जाना अच्छा लगता है॥


॥उनका शर्माकर अपने आँचल में छिप जाना अच्छा लगता है॥