अध्याय 20 ॥ मन की उड़ान ॥

मैं जब छोटा था तो बस अपने मन में जो भी आता वही लिख देता था पर ना जाने कैसे एक आदत पड़ी सिर्फ अच्छे लेख चुनने की नतीजा दो कविता लिखने में अंतराल बढ़ता जा रहा था। और कई विचारों को मैं बचकाना समझ के अनदेखा कर देता था। पर आज सोचता हूँ इस जहाँ में अरबों आदमी, करोंड़ों विभाजन, और हजारों अलग सोचें है। इसमें मेरी क्या बिसात जो मैं किसी को मना कॅंरू। अब मैं सोचता हूँ वो लिखूँ जो पसंद आता है ना की वो जो जरूरी है।

॥ मन की उड़ान ॥


एक बार तो उड़ लेने दो मुझे सपनों के पॅंख लगाके

गिर जाँऊ भले ही मैं

पर एक बार तो छू लेने दो हवा को ये छोटे पर फैलाके।

तुम्हारी हकीकत का भार तुम्हारे सपनों से बहुत ज्यादा है,

तुम्हारी जेब का वज़न ज़्यादा और खुशियों का आधा है।

जीने की अहमियत कहाँ हैं यहाँ

पर मुझे तुम पहले ही क्यूँ मेरा भार बतलाते हो

छोटी सी एक किरण को तुम पहले ही झुठलाते हो।

मै थोड़ा सा पागल थोड़ा सा नादान हूँ

तुम फुलों को मैं काँटों में खुशियों को चुनता हूँ।

तुम मशीनी जहाज में भी डूबने से डरते हों

मैं तो सरकण्डों की नाव पर दुनिया घुमने का ख्वाब बुनता हूँ।

मान लिया मैं हूँ तिनका पर पत्थर कहाँ उड़ा करते हैं

मुझे यूँहीं बिखरने दो आखिर थोड़ा तो उड़ने दो…॥


तुम मुझसे तेज हो, ताकतवर हो, अमीर हो,

जिन्दगी की राह में कई मील शुरू से आगे हो।

पर धीरे-धीरे, सरक-सरक कर ही सही

पर मैं पहुँचुँगा ज़रूर, जहाँ कहा था, ठीक वहीं

पर आज बस एक बार मुझे टोको मत सहारा दो

ना सही तो रोको मत कमसकम चुप तो रहो

मुझे लहूलूहान हो जाने दो इन सड़कों पे गिर-पड़ के

कम से कम जब मेरे पास कुछ भी ना होगा

तब भी एक सॅंभावित, संतुष्ट मुस्कान तो होगी।

की मैने भी जीए थे अपने सपने भले ही बस एक पल के लिए

पर जब तुम जी रहे थे दूनियादारी मे, मैं जी रहा था जिंदगी के लिए।

खुद को परखता हुआ मैं जी रहा था छोटी सी उस खुशी के लिए।।

छोटी सी उस हॅंसी के लिये ….

एक बार तो उड़ लेने दो मुझे सपनों के पॅंख लगाके

गिर जाँऊ भले ही मैं

पर एक बार तो छू लेने दो हवा को ये छोटे पर फैलाके।