अध्याय 44 ॥ शहर के फ्लैट ॥
28 जुलाई, 2015
एक तरफ ये खुले-खुले खेत हैं दूजी तरफ ये तहखानें हैं।
ये लोग कितने अजीब हैं जो इन बंद डब्बों के दिवानें हैं॥
ना मैं इसे जानता हूँ ना उसे, ना तुझे और ना ही खुद को
इस दौड़-धूप की दुनिया में अब आखिर कौन किसे पहचानें हैं॥
बेइन्तेहा भीड़, दम घुटता हैं मेरा इन काँच की बाँबीयों में
दीमक होते तो ग़म ना था, ये भी कोई इंसानों के ठिकानें हैं॥
क्यूँ सुनूँ तेरा ये शोर जिसनें मेंरे कान कमज़ोर कर दिये
मेरे यमुना तट पर तो आज भी घनश्याम की तानें हैं॥
नफ़रतों की चपेट में आ गये हैं अब सारे शहर के लोग
ये मज़हब तो समझते हैं पर तुझ से फ़िर भी अंजानें हैं॥
भाई, मैं काफ़िर हूँ मुझे कर लेने दे जी भर बुतपरस्ती
तू ना समझेगा, पर मेरी बंदगी को वो तेरा खुदा जानें हैं॥
एक तरफ ये खुले-खुले खेत हैं दूजी तरफ ये तहखानें हैं।
ये लोग कितने अजीब हैं जो इन बंद डब्बों के दिवानें हैं॥