अध्याय 67 ॥ गंगाघाट की जलपरियाँ ॥

15 मार्च, 2015 । माँसाहार पे एक और व्यंग।


॥ गंगाघाट की जलपरियाँ ॥


मछलिया बहुत मिलनसार हैं गंगा घाट पर

मैं बैठा खुश हो रहा था, उनके साथ खेलकर

शाम का वक्त था, मैं दाना डाल रहा था

बेसब्री में वो दाना लेने ऊपर हाथ तक आ रही थी

सब शाकाहारी हैं यहाँ ये बात शायद उनको पता थी।

रंग-बिरंगी, छोटी-बढ़ी, हर रंग-रूप में थी ये जलपरियाँ

समुद्र में शायद वो खाना थी पर यहाँ सच में थी रानीयाँ

पानी के अंदर था एक बेखोफ् मछलियों का अनोखा जहाँ

ना कोई जानवर , ना काँटा, ना किसी जाल कि परवाह

मेरी माँ को लगा कि शायद मैं आज खाना चाहता हूँ - मछलियाँ

वो मेरे पास आई, सकुचाकर बोली और मुस्काई,


“बेटा तुम्हे कैसी मछली अच्छी लगती है।”

मैंने समझाया, “बेखौफ तैरती हुई”

“अरे नहीं मतलब मछली में क्या अच्छा लगता है।”

“जिवंत प्राण”

“बेवकुफ खानें में क्या अच्छा लगता है।”

“बैगंन का भर्ता”


मुझे गुस्सें में देख रही थी, नासमझ बनी मेरी पढी-लिखी माँ

मैंने फिर पुछा कि “माँ इसमें और मुझमें कोई फर्क है क्या।”

वो चिढ़कर बोली “हाँ वो पानी में रहती है और तू जमीन पर।”


मैंने कपड़े उतारे और तैरने के लिये पानी में छलांग लगा दी

मैं जोर से चिल्लाया, “अब कोई मुझे जाल में पकड़े तो।”


हम दोनों परेशान थे माँ इतंजार कर रही थी मेरे सियाने होने का और मैं उनके जागरुक होने का।।