अध्याय 9 ॥ यूँही जा रहा हूँ मैं ॥
2005, अपने दोस्त के बढे भाई की शादी से वापस आते वक्त कुछ दोस्तों ने कविता सुनाने को कहा तो मैने उस वक्त एक शेर बनाया। और बाद में उस शेर पे कविता।
भीड़ में नाचते पैरों के तले फिसलता जा रहा हूँ मैं
खो रहा हूँ खुद को और खो-खोकर संभलता जा रहा हूँ मै
लगता है देखकर के है साथ हज़ारों का यहाँ
पर उन हज़ारों में भी ऐसे ही तन्हा रहा हूँ मैं
बढ रहा हूँ अन्जान होकर, पता नहीं कहाँ,
ना मंजि़ल, ना रास्ता, ना कोई तलाश,
इन धुनों पे, या कहो इस चीखते चील्लाते हुए ईन्सानी शोर में
कदमों की आहट की तरह छुपा रहा हूँ मैं।
मंजि़ल क्या है एक धोखा ही तो है
बस एक उत्साहपूर्ण ठहराव,
दरारें पड़े हुए जज्बातों को निकाल फेंकती है
कुछ किस्से सुनाने के लिए छोड जाती है।
और मौत की तरह अपनी गोद में लिटा
सफर की थकान मरोड़ जाती है।
बस ऐसी ही कुछ मंजिलों की ओर कदम बढा़ रहा हूँ मैं।
नाप़ाक हैं सब, हर इंसान आज मतलबी है
हर किसी में किसी न किसी चीज की तलब छुपी है।
पैसों के ढेर में तोलने लगे हैं इंसानो को
आज इसी द्वेष और ईर्षा के साए में पलती जिंदगी है।
उजालों ने दिए हैं धोखे इतने कि
अंधेरों में ख़ुद-ब-खु़द समा रहा हूँ मैं
और जीने में भी हैं सदाएँ इतनी
कि जिंदगी से भी अब तो डरता जा रहा हूँ मैं।
बस अंजानी राहों पे बेखबर बढ़ता चला जा रहा हूँ मै……