अध्याय 45 ॥ मज़हब और भगवान ॥

05 नवम्बर, 2015


॥ मज़हब और भगवान ॥


ना कोई शैतान मरता है ना कोई भगवान मरता है।

जब भी मरता है तो दोनों तरफ कोई इंसान मरता है॥


मैनें ना तो कोई खुदा देखा है ना ही महसूस करा है

फिर भी मज़हब नहीं सिर्फ हिन्दू मुसलमान मरता है॥


उसको कुछ भी नहीं होगा चाहो तो लिखवा लो मुझसे

अरे कभी सुना है दंगों में कोई सियासतदान मरता है॥


करोड़ों मीलों की कायनात का ज़र्रा तक नहीं है तू

और उसपे घमण्ड देखो तो लेके तीर कमान मरता है॥


गर लहू से खुदा मिले तो काट डालूँ मैं भी सबको

पर इस सवाल तक आकर बस सबका ज्ञान मरता है॥


मैं सोचता हूँ छूरी चढ़ाऊँ के फूल इस पत्थर पर

जिसकी नरबली के लिए रोज़ कोई बेजुबान मरता है॥


मैं जोगी हूँ, मुझे दूर ही रहने दे उसके दर से

उस सूरत पे कतरा-कतरा मेरा सारा इमान मरता है॥


मेरे खुदा, मुझे तू नसीब हो फिर कुछ मिले ना मिले

तेरी आस में देख रोज़ तेरा बंदा हजार जान मरता है॥


ना कोई शैतान मरता है ना कोई भगवान मरता है।

जब भी मरता है तो दोनों तरफ कोई इंसान मरता है॥