अध्याय 13 ॥ आखिरी पल ॥

14, फरवरी 2007, इसे समझाना मुश्किल पड़ेगा। शायद आपको कभी भी समझ ना आए। पर नज़रिया बदलोगे तो बहुत ही आसानी होगी। इसे बहुत धीरे- धीरे पढ़ना।

॥ आखिरी पल ॥


यूँ तो जीता है हर इंसान जहाँ में

और मौत से भला बच पाया है कोई

इस ज़ालिम जिंदगी में हज़ारों ग़म है

पर ग़र मर-मर कर यूँही जीना है तो जीना कैसा

मौत ग़र तेरी बाँहों में सिमट कर आए तो मरना कैसा?


यूँ तो जिंदगी में कई बार जिया हूँ

कभी अकेले, कभी दर्द में,

कभी बस यूँही कुछ ख्यालों में

तरसता था जिंदगी भर जिन पलों के लिए

मौत से उन्हे माँग उधार लाया हूँ

ग़र ये पल तेरे साथ ग़ुज़र जायें तो तरसना कैसा

इन बाँहों से लिपट यूँ मर जायें तो मरना कैसा?


ये सुनहरा चेहरा हॅंसी,

सुनहरे बालों में उलझा वो हसीन नज़ारा

है कुछ खास बात के इससे जी भरता ही नही

है कोमलता में इसकी दरारें कई

अकेलापन जो है इसमें बस मैं जानता हूँ

इस उदासी की वजह भी मैं हूँ, मानता हूँ,

इन गोल निली आँखों में कितनी चाहते हैं,

ना जाने कितने सपने हैं,

इन्हे मुस्कान में समेट चंद पल खुशियों के दे पाँऊ

तो मरना कैसा,

इन निगा़हों में डूब कर मौत आए तो मरना कैसा?


तेरी बाँहों में कसे हुए, तेरे जिस्म से यूँही लिपटे हुए

निचे बहती खामोश सी धूधं

और ऊपर चाँद- तारों की रोशनी में सिमटे हुए

इक फूलों की घाटी में, जूगनूओं के साथ

हल्की सी बहती हवा में झरने के छिंटे मिले हुए

तेरे बालों को सहलाते जाना,

तेरे चेहरे को आखिरी बार निहारते हुए

तुझे शर्माता देख तुझे थोड़ा सा छेड़ना

उफ! गोरे गालों पर पडी वो रेशमीं लटें सहलाते हुए

बस बेफिक्र तुझे देखते जाना….

हाय! के इतना हसीन हो मौत का वो मंज़र

तो फिर डरना कैसा….।

मौत ग़र इतने प्यार से ले जाए तो मरना कैसा….।


ग़र इश्क में मरना है और मरने से डरना है

तो ऐसा इश्क करना कैसा?

अपनी साँसों को तेरी साँसों में मिलाकर

तेरी सूरत आँखों में बसाकर

इन होंठों को निहारते हुए,

तेरे साथ यूँही मौत का इंतजा़र करता जाऊँ

हाय! के इतना प्यारा हो मौत का मंजर

तो फिर मुकरना कैसा….?

ग़र मौत तेरी बाँहों में सिमट कर आए तो डरना कैसा?

ऐसे मरने से भला डरना कैसा….?

ऐसे मरने में आखि़र मरना कैसा….?