अध्याय 49 ॥ टूटते सपने ॥

08 फरवरी, 2016


॥ टूटते सपने ॥


अंधेरे या उजाले कुछ भी मुझे भाते नहीं हैं

मेरे हालात अब मेरी नींदों में समाते नहीं है ॥


मैं बच्चा था तो अच्छी यारी थी उनसे

एक मुद्दत से ख्वाब इन आँखों में आते नहीं है ॥


इस जमाने ने परत दर परत नोचा हैं उन्हें

अब कितना ही दर्द हो वो चिल्लाते नहीं है।


मेरे ज़हन में हकीकत का इतना भार धरा है

की नींद में भी पंछी साथ उडनें बुलाते नहीं है ॥


हमने अपना दिल उन्हें दिया तो वो बोली

बस क्या इससे ज्यादा आप कमाते नहीं है ॥


मैं आदमी बुरा नहीं मेरे हालात बुरे है

पर उन्हें शिकवा है के दिल चीर के दिखाते नहीं है ॥


टूटते सपनों का दर्द होता है कुछ ज्यादा मुझे

इसलिए अब अपने लिए हम सपने सजाते हैं॥


एक हँसी ख्वाब दे फिर हमेशा को सुला दे

क्या है की मुर्दों को लोग जगाते नहीं है ॥


मुस्कानों में लपेट दो तो झूठ भी बिकता है

लोग अब सच बाज़ार से घर लाते नहीं हैं ॥


हजारों जख्म मेरे सीने में गढ़े हुए हैं मेरी जाँ

आग पर हम आँसुओं से बुझाते नहीं है ॥


अंधेरे या उजाले कुछ भी मुझे भाते नहीं हैं

मेरे हालात अब मेरी नींदों में समाते नहीं है ॥