अध्याय 14 ॥ शब्द नहीं मिलते ॥

14, फरवरी 2007, मैं दिल्ली में रह रहा था पिछले दो साल से, घर से दूर, घरवालों से दूर था, वो भी दिल्ली जैसे शहर में। मैने पूरे एक साल बाद कविता लिखने की सोची पर कई देर बाद भी कोई ख्याल मन में ना आया। मैने सोचा ऐसा क्यूँ और जवाब सामने था। इसके साथ एक प्यारा किस्सा भी है। इस दिन मैने दो कवितायें लिखी और अगले दिन मैं कॉलेज गया तो कॉलेज में कवि- सम्मेलन था। आप अपनी रचनायें भी सुना सकते थे। मेरे दोस्त का दोस्त इसमें हिस्सा ले रहा था तो हम उसके साथ चले गए उसका होंसला बढा़ने के लिए। वहाँ जाके पता चला की अभी भी चाहे तों नाम लिखवा सकते थे। दोस्तों ने नाम जबरदस्ती लिखवा दिया। मैं डरा हुआ था मैं पहली बार कॉलेज में कविता सुनाने जा रहा था। मैं सिर्फ शौकिया कवि था। पर जब बाकि बच्चे शुरू हुए तो तस्सली मिली कई तो केवल मस्ति करने आए थे, कईयों की कवितायें बेकार थी, कईयों की अच्छी मग़र कहने का अन्दाज़ बुरा, बस मैं दो-चार कविताओं को ही प्रभावशाली कह सकता हूँ। मेरा नम्बर आया तो उन्होने मेरा खूब मजा़क उडा़या क्योकि मैं बी० कॉम हॉर्नस से था जहाँ से कोई भी, कभी भी कवि-सम्मेलनों में आता तक नहीं। मेरे लिए एक बेहद अच्छी हास्य रस की भूमिका बाँधी गई। मैं पहले ही डरा हुआ था कि कँही लडके मेरा भी मज़ाक ना उढ़ाए और ऊपर से ऐसा स्वागत। खैर मेरी कविता अंततः लोगों का ध्यान खिँच पाई। शाँति से लोगों ने सुनी और लोगों को बेहद पसंद आई। मेरा नाम बाद में भी ३-४ बार दोहराया गया और लोगों ने बधाई भी दी। ये एक सफ़ल अनुभव था।

॥ क्यूँ आजकल मुझे शब्द नहीं मिलते ॥


क्यूँ आजकल मुझे शब्द नहीं मिलते,

क्यों आजकल मुझे शब्द नहीं मिलते,


मैं गुमसुम सा रहने लगा हूँ

ख्यालों में डूबा, अपने में सिमटा,

टुकड़ों में बिखरा, तिनकों सा टूटा

मैं लहरों में यूँही बहने लगा हूँ

मैं वो नहीं रहा जो मैं हुआ करता था

जुदा सा बदला सा हूँ

अब ना जाने क्यूँ मुझे शब्द नहीं मिलते

मुझे शब्द नहीं मिलते…..!


तरगें तो उठती है अब भी

पर फिर शाँत हो जाती है, बस यूँही

अब वो जूनूँ, ना जाने, जगता नहीं है

निगाहों में इक झूठा मंज़र है समाया

सच ढ़ूँढे भी यहाँ मिलता नहीं है

झूठी दूनिया अंधेरी सी, अंधकार,

अन्नत अंधकार क्षितिज के पार है फैला

गोधुली को हटाए ले जा रहा

हंसता है आदमी पर होंठो पे वो मुस्कान नहीं मिलती

बजाए भी इन वीरानों में वो साज़ नहीं बजते,

उलझा हूँ मैं भी बस इसी धुँध में

ना जाने क्यों आजकल मुझे शब्द नहीं मिलते,

शब्द नही मिलते….!

हज़ारों उलझे हुए विचार

एक तूफान सा हरपल कौंधता है ज़हन में

सिसकता आदमी, एकाँत में

एक कोरी किताब, कुछ बिखरे पन्ने

उँगलियों को छूकर कलम उठती है,

एक अहसास, कुछ भाव

एक और कल्पना और विचारों का प्रवाह

उठती-गिरती कलम, वही निशब्द विचार

वहीं फटे-कोरे पन्ने, और वही झुँझलाया आदमी

कुछ ऐसा ही होता है अक्सर मेरी विचारधारा को

अब छुटपुट भी प्रवाह नहीं मिलते

कलम तो उठ जाती है पर क्यों

ना जाने अब मुझे शब्द नही मिलते, शब्द नही मिलते….!



बचपन के आर्दश अब खोखले से लगते हैं

हरपल साथ निभाने वाले भी दोगुले से लगते हैं

बढ रही है जि़ंदगी बस यूँही,

कहाँ से चले, कहाँ ये आ गया हूँ मैं

जिस जीवन-माला को प्यार से पिरोया था

उसका हरेक मोती बिखर गया है,

कम्बख्त! जितना ही समेटता हूँ

उतनी ही और बिखरती है,

इसी भीड़ में खोया हूँ, बच्चे सा मैं भी,

पुकारने पर भी मुझे मेरे अपने नहीं मिलते

कलम उठ जाती है, पर शब्द नहीं मिलते

अब शब्द नही मिलते….!



राहें वही हैं, मंजिल वही

मेरे कदमों को मग़र अब दिशा नहीं दिख़ती

उजाले यँही तक रूक जाते हैं

जहाँ से अँधेरा है वहाँ से मशालें नहीं जलती।

हरपल शून्य गगन सा विचारों में

उलझा रहता हूँ मैं अपने सवालों में,

के ना मैं दोषी हूँ और शायद जग भी नहीं

तो ये जिसकी भी है कमीं, आखि़र क्यूँ नहीं मिटती।

मैं बहुत ही घबराया हुआ हूँ,

छोटा था तो ठीक था, पर जबसे बड़ा हुआ

इस पूत के पालने में पाँव नहीं टिकते

उठती है क्यों ये कलम?

आखिर क्यूँ उठती है, जब मुझे शब्द नहीं मिलते

मुझे शुब्द नहीं मिलते…..!



यहाँ बोलते सब हैं सुनता कोई नही

और बोलने वाला कभी कुछ करता ही नहीं

ये शब्दों की दुनिया , ये दिखावे की दुनिया

ये झूठे वादों से सजी, सिर्फ झूठी बातों की दुनिया

इन खोखले शब्दों में कभी सच नहीं मिलते

अब तो सोचने को भी शब्द नहीं मिलते

हाथ अभी भी काँप रहे हैं पर मुझे शब्द नहीं मिलते ……. ।


हर तन्हाई की जुँबा समझ जाता हूँ,

खामोशी का हर वाक्य पहचान जाता हूँ,

इस बेरंग जिंदगी के शातँ हैं गीत मगर,

विरानों के तरानों को मै जान जाता हूँ।

निशब्द है जिंदगी शायद इसलिए,

मुझे शोर करते बेदर्दी शब्द नहीं मिलते

सिसकियों में अब आँसू नहीं दिखते,

कराहों में अब आहें नही मिलती,

मैं समझ तो हर बात जाता हूँ मगर

ना जाने क्यों, ना जाने क्यों,

अब चिखों में वो दर्द नही मिलते,

कलम उठ तो जाती है, पर अब मुझे शब्द नहीं मिलते


ना जाने क्यों बस अब शब्द नही मिलते….!