अध्याय 4 ॥ रात्रि ॥
2001 में सर्दियों के दिन थे। मेरा दोस्त मेरे पास आया रात को और बोला कि मुझे एक कविता शुद्ध हिंदी में चाहिए तेरी वाली उर्दू नहीं चलगी, ज़रा भी नहीं। उसे स्कूल की मैग़जी़न के लिए चाहिए थी। हमारे किताब में एक कविता थी रात्रि के सौंदर्य वर्णन करती हुई मैंनें वही कविता अपने शब्दों में लिखने कि कोशिश करी। दर्शन का मुझे ज्ञान नहीं था तुकान्त को कविता कहता था। उस वक्त मैं उन कठिन शब्दों को ही अच्छी कविता समझता था चूंकि समझ आनी अभी बाकी थी। आज मैं उसकी केवल चन्द पंक्तियाँ ही दोहरा सकता हूँ।
कृष्ण वर्ण, कौर आभा
शाँत-मन, श्यामल तन
कोमल छॅंवि, औझॅंलित रवि
निर्मल आग, सुमधुरित राग
पग-पग कोमल, पाग-पाग यौवनमय
कजरारे दृग, महक ज्यों कस्तूरी मर्ग
अंतुलित काया, दुर्लभ छाया
हे बाले! ईश्वरीय माया
उर्वर तन को क्यों भर्माया
हर्षाया मन ललचाया, ओढ़े तारों की झिलमिल ओढनी
किए मस्तक पर शोभित चन्द्र
लंक हिलाकर, यों इतराकर
बहती जलधाराओं मे प्रतिबिबं दिखाकर
कहो इस काले, अहो! क्यों विराजी ?
क्यों लुटाती यौवन व्यर्थ ही ?
हे रूपमती! इन श्रँगारों कि
आभा अंधकारमय करती क्यों व्यर्थ ही ?
सो रही जिज्ञासुक आँखे सारी
कोमल ममतामय प्यारी,
स्वर्णझाँकी उल्काओं की भी सोने चल पड़ी
नगराज हिमालय, काशी शिवालय
बद्री-रामेश्वरम, सब देवालय
अम्बर से धरा तक जीवन विद्यालय
सोए पड़े हैं संग में सारे उजाले
शाँत है समूचा गगन
माँ का क्रुदन, बालक का रूदन
कीट-पतंगों की धुन में मगन
तू नृत्य करे भरकर लगन
जीवन की पीडा को हर के, भर दे जीवन प्यार से
निंद्रा को हथेली पर धरे, तू दुःख हरती संसार के
चिर यौवनमय कामनी, तू कल- कल बहती दामिनी
तू शाँत स्वरूप स्वामिनी
जयती जय हे रात्रि, हे रात्रि!