अध्याय 39 ॥ माँ प्रकृति ॥
5 जून, 2015
मैं एक बार फिर अपनी माँ के आँचल में जाना चाहता हूँ।
इसलिये कुछ दिन किसी शाँत जंगल में बिताना चाहता हूँ॥
आज एक चिड़िया तिनका लेकर ढूँढ रही थी कुछ शायद
उसके लिये राजधानीं में एक लकड़ी का पेड़ बनवाना चाहता हूँ॥
तुम्हारे टी॰वी॰ और इंटरनैट के दाम लगातार कम हों तो हों
मैं बचपन की वो मीठी रोटी थोड़ी सस्ती करवाना चाहता हूँ॥
धरती ने भी कभी घास और नारंगी में फर्क करा है भला
मैं रंगों को इन मज़हबों से कहीं बाहर निकलवाना चाहता हूँ॥
मिल जाये ग़र खुदा यूँही कहीं मुझे इस हाड-माँस की दुनिया में
उसे एक कुदरतपसंद बूढ़ी औरत से मिलवाना चाहता हूँ॥
और कब तक ढूँढूं मैं अल्फाज़ इन शेर-ओ-ग़ज़लों के लिये
आखिर कुछ ऐहसासात मैं अपने दिल में भी छिपाना चाहता हूँ॥
मैं एक बार फिर अपनी माँ के आँचल में जाना चाहता हूँ।
इसलिये कुछ दिन किसी शाँत जंगल में बिताना चाहता हूँ॥