अध्याय 25 ॥ मुझे क्या-क्या पसंद नहीं आता ॥
26 जुलाई, 2010 मेरी लिखी पहली ग़ज़ल
अपना मुल्क ग़ैरों के आगे झुक जाए पसंद नहीं आता।
शरीफ़ों के इर्द–गिर्द लुटेरे बस्ती बसाएँ पसँद नहीं आता॥
हम दरख़्वास्त करते हैं चोरों से हमारा घर छोड़ जाने की, पर
आग बुझाने का जि़म्मा चिंगारीयों को सौपाँ जाए पसंद नहीं आता॥
ये जमाना दौड़ता जा रहा है, अब रातों की वो नींद कहाँ।
ग़र दिन नम–लाल आँखों में गुज़र ना पाए पसंद नहीं आता॥
मत सोच तू सच क्या है? सच अब सच्चाई नहीं है।
ये दोगुली बात बहुमत की कोई फि़र सुनाए पसंद नहीं आता॥
इस दौर में तो खुदा भी बात नही करता पशू–प्रेम की,
अब काली पूजा में ग़र बेकसूर लहू ना बहाएँ पसंद नहीं आता॥
कहाँ से नौमन तेल होगा और कैसे ख़ुशहाली नाचेगी,
मुफ़लिसी और मंहगाई जब साथ गज़ब ढ़ाए पसंद नहीं आता॥
बकरों की सभा में बहस है जगंल पर राज मैं कॅंरूगा,
कागजी़ गुरूर में इंसान औकात भूल जाए पसंद नहीं आता॥
कभी चेहरों पे मुखोटे लगते थे, अब तो मुखौटों पे मुखौटे हैं,
इस शहर में जो भी अपनी सूरत दिखाए पसंद नहीं आता॥
हमने सबकुछा खो दिया बस अपनी सभ्यता बचाने के लिए,
पर आज का इन्डिया, ‘ भारत ’ को यूँ नीचा दिखाए पसंद नहीं आता॥
अपना मुल्क ग़ैरों के आगे झुक जाए पसंद नहीं आता।
शरीफ़ों के इर्द–गिर्द लुटेरे बस्ती बसाएँ पसँद नहीं आता॥