अध्याय 68 ॥ नारीवाद ॥
22 अक्टूबर 2017
“क्या हम दोनों नहीं हैं एक समान?”
ये प्रश्न उस नन्ही सी जान
और उस रोती लड़खड़ाती जुबान
से किसी के भी हृदय को भेद सकता था।
फिर उसकी आवाज़
उसका मासूम अंदाज
शब्दों की पकड़
श्रोताओं को जकड़ लेती थी
अजी आप भावुक हुए बिना रह ही नहीं सकते।
ऐसी चोटें आप सह ही नहीं सकते।
फिर मिसेज शर्मा का भोला चेहरा
और उनकी बड़ी आँखों का पहरा
उसपर उसके आँखों में आँसू भी तो थे
जो कि अनायास उभर आए
घर आए किसी पराए पर आए
संकट को सुनाते हुए।
वो बटोर कर अपने पूरे प्राण
फिर चिल्लाई
“क्या हम दोनों नहीं हैं एक समान ?”
गूंज रहा था यही नारा हर जुबान
जिसपर हो चुके के सब कुरबान
“क्या हम दोनों नहीं हैं एक समान ?”
माना नहीं होश में थी
पर सभा पूरे जोश में थी
नारी-मुक्ति के सालाना जलसे में
आखिरी वक्ता बनना कोई छोटी बात ना थी
पूरे दिन का सार बताना पड़ता है
आखिर सभा को अंत में जगाना पड़ता है
ये जिम्मा किसी बड़े को उठाना पड़ता है
कई मेहनत मशक्कत के बाद
अब कहीं मिला था मिसेज शर्मा को ये सम्मान
पर नहीं था ये इतना आसान
आज ना जाने क्या खास था
पर पूरा स्टेडियम खचाखच भरा था
उस पर स्टेडियम ऐसा की
खत्म होने का नाम ना ले
कोई छोटा मोटा तो वहाँ काम ना लें
विशाल, अजी महाविशाल कहिए
और उसमें गूंजती मिसेज शर्मा
करीब करीब खुद को महारानी समझ रही थी
चाँदनी शाम में, चमचमाती लाइट में
और भी लग रहा था आलीशान
और वहां बार बार गूंज रहा था
“क्या हम दोनों नहीं हैं एक समान ?”
मिसेज शर्मा का तभी फोन बज उठा
तालियों के शोर में बत्तियों से सज उठा
सबके कान खड़े हो गए
और मिसेज शर्मा के रौंगटे
हो भी क्यूँ ना इतने ऐन मौके पर
टेबल के एक कोने पर
लाइट मारता वो फोन
इस पर था वो कौन
बता रहा था
नाम नारायण जी लिखा आ रहा था॥
मिस्टर शर्मा आई॰ ए॰ एस॰ थे भाई
जात के पंडित, फिर ऊपर की कमाई
पर स्टेज पर फोन कैसे उठाए
सोचा सायलेंट करनें में ही है भलाई
पर ज्यों ही हाथ बटन पे जाते
शर्मा जी आँखों के आगे आ जाते
हट्टा-कट्टा शरीर, रोबदार आवाज़
मजिस्ट्रेट बाबू के अलग ही अंदाज
सोचा उठा ही लूँ फिर देखा
पूरी भीड़ खीज रही है
सारे भाषण की मिट्टी पलीत हो रही थी
किमकर्तव्यविमूण का अर्थ आज समझ आ रहा था।
बटन बस अब दबने ही जा रहा था
की कुछ अनचाही यादें सोच वो
उसकी सारी चेतनाएँ भांप गई
जिस्म से लेकर रूह तक कांप गई
वो शेरनी थी पर कमजोरों की
फोन उठाया और चुपचाप बाहर गई।
ख़ौफ़ और हौसलों की जंग में जीत
हौसलों की सिर्फ तब होती है जब
खौफ बहुत ही छोटा हो
यहाँ तो मगरमच्छ दहाड़ रहा था
गला फाड़ के चिंघाड़ रहा था
हाँ मगरमच्छ जो उसे काटता था
बोटी बोटी करके खाता था
पर सभा इस बात से थी अनजान
वो अब भी चीख रही थी
“हाँ हम दोनों हैं एक समान॥”
पर मिसेज शर्मा के कानों में बस
एक ही सवाल था
कहिए की बस बवाल था
जो बज रहा था एक टक होकर
“तुम वहाँ गई क्यूँ मुझसे पूछे बगैर”
जी समाज व जात के ताने थे बस
मगर उस मगर की आवाज़
फोन से बाहर तक आ रही थी
और पंडिताईन की हलक के अंदर जा रही थी
बचते बचाते वो नेपथ्य में गुम होने लगी
खुद को खुदी में डूबोने लगी
एक पल्लू और एक अँधियारे के भरोसे
इज्जत टिकी हुई थी
जाने कौन मनहूस घड़ी थी
जब वो इसके चक्कर में पड़ी थी
गला भर आया था मानों अभी रो पड़ेगी
पर उसे कहाँ पता था किस पर नज़र पड़ेगी
रमेश कुमार जी पलट रहे थे
कुछ गत्तों को उलट रहे थे
दोनों की नज़रें चार हुई
आँखों आँखों में बातें हजार हुई
उस एक पल में वो पिछले पांच सालों
कि पूरी राजी खुशी पूछ गई
पलक यूँ झपकी की डबडबाई और भीग गई
रमेश जी ने अपना चश्मा साफ करा
और सूरत को दुबारा टटोला
ऐसे देखा जैसे माफ करा
कमर दो तीन इंच बढ़ गई थी
बालों में कुछ सफेदी चढ़ गई थी
पर उतनी ही मासूम की कत्ल होकर भी
रमेश को वो लफ्ज़-ब-लफ्ज़ रट सी गई थी
रमेश जी समझ नहीं पा रहे थे कि क्या बोलूं
बोलूं की डाँटूं , डाँटूं की बोलूं?
डाँट सकता हूँ क्या यही टटोलूँ?
गुस्से से बोलूँ या प्यार से बोलूँ
बोलूं की डाँटूं, डाँटूं की बोलूं?
और मिसेज शर्मा सोच रही थी कि कुछ ना बोलूं
क्या बोलूं कैसे बोलूं?
और बोलूं तो अब क्यूँ बोलूं?
कुछ है बचा जो बोलूं, बोलूं ना बोलूं?
चुप रहूँ की कुछ तो बोलूँ
आखिर क्या बोलूं कैसे बोलूं?
फिर भी हिम्मत की जीत हुई थी
शब्द ना थे पर आवाज़ वही
जो होठों से होठों तक सुनी हुई थी
“तो तुम हो वो मिसेज शर्मा।”
कहकर रमेश नें अब कहना शुरू किया
एक लम्बी सी मुस्कान लिए
कुछ यादों का ध्यान किए
पूजा ने बस हाँ में सर हिला दिया।
"क्या हम दोनों नहीं हैं एक समान।
वाह क्या तरीके से बात खत्म करी है जनाब।
तुम्हें बात बखूबी खत्म करनी आती है
पर रि…श्ता….."
रमेश जी बात खत्म ना कर पाए और
किसी तरह थमें हुए आँसूं खुद ही बह निकले
पूजा भी अब और नहीं रोक सकती थी।
उधर शर्मा जी को जवाब ना मिलनें पर
माँ बहन की याद आ चुकी थी
और उनकी आवाज़ फोन के बाहर जा चुकी थी
पर रमेश जी के आगे या कहें अपने रमेश के आगे
वो कैसे ये दिखाती की फोन के अंदर है जो
एक अलग ही दुनिया है वो
उसने गलत फैसला लिया था जो
आज काल बनकर ढ़ह रहा था कर्म वो
ये कर्म हर रोज उसे ज़र्रा ज़र्रा निगल रहा था
अब तो दिल के साथ जिस्म भी पिघल रहा था
आखिर कुछ साहस जागा और पूजा ने फोन बंद किया
घंटी दुबारा बजी तो सायलेंट किया
पूछ बैठी , "तुम यहाँ कैसे?
क्रिकेट के अलावा भरते हो अब इसके भी पैसे"
व्यंग बेढंगा था पर कड़ा था
सही जगह जाके गढ़ा था
रमेश मुस्कराया पर बोला कुछ नहीं।
सोचा बहुत मगर सकुचाया।
उसे पूजा की कहना याद रहा
"और कमाओ नहीं तो मैं चली
किसी अमीर यार की गली॥"
रमेश जल्दी भड़कता नहीं था
पर सालों का उबाल था
उसने सब किया था पूजा के लिए
सब कुछ जो वो कर सकता था
जान मांगती तो भी हँस के दे देता
समाज के, जात-बिरादरी के सारे
ताने चुपचाप अकेले सह लेता
पर उसकी अच्छाई पर
और उसकी कमाई पर
आई॰ए॰ऐस॰ की मोहर जो ना थी
लेकिन जिंदगी कोई सौ मीटर की रेस नहीं है
ये एक सत्तर साल की मैराथन है
जिसमें कभी भी कोई आगे पीछे हो सकता है
आज रमेश वो रमेश नहीं था
उसे पूजा के ताने, बहाने सब
एक क्षण में याद आ गए
फिर भी वो चुपचाप पी गया
प्यार किया था तो सह भी गया
गुस्सा शांत किया फिर बोला
"तुम तरक्की कर गई यार
मैं आज तक ढूँढ़ता रह गया प्यार।
सही कहती थी तुम हँस कर
लड़की अगर अपनी औकात से तीन सीढ़ी ऊपर,
तीन इंच लंबे, तीन साल बड़े और
तीस हजार ज्यादा कमाने वाले पर
ना जाए तो लानत है लड़की होने पर।
उस पर भी तब जब वो हो सुंदर।"
आवाज़ में गुस्सा कम और तड़प थी ज्यादा
आखिर उसने थोड़े ही तोड़ा था हर वादा
पूजा अपनी बरबादी कि वजह जानती थी
लालच कि सजा भी मानती थी
अपनी पूरी गलती पहचानती थी
मगर ये लम्हा वो भी पिरो के रखना चाहती थी
कैसे बात शुरू करे समझ नहीं पाती थी
बातें बहुत थी, वक्त कम
उसकी हड़बड़ी रमेश पहचान रहा था
पर भुला नहीं पाता था अपने ग़म
पूजा कि घबराहट मगर उसे भा रही थी
जैसे ये चाँदनी सिर्फ और सिर्फ इन दोनो पर ही आ रही थी
जैसे ये सारी दुनिया अंधेरे में समा रही थी
जैसे कोई और अब यहाँ नहीं था
जो हमेशा से चाहिए था हर तरफ वही था
बस दो दिल और वो चाँद
उजाले में भीगते
आँखों में देखते
हर तरफ से ये दो दिल अन्जान
सालों से जिस जिस्म ने जीना ही छोड़ दिया था
वो फिर से मचल उठा, आ गई जैसे जान
जैसे किसी बेजान लाश में फूँक दिए हों किसी ने प्राण
जैसे दिल वापस सीनें मे समा गया हो
जैसे चलने लगी हो फिर से धड़कन
जैसे होने लगा हो फिर से नसों में स्पंदन
जैसे बरसों से सिर्फ इसी का तो इंतजार था
जैसे इसीपल के लिए मरा हर बार था
जैसे सब सही पर फिर भी कुछ गलत, पर क्या सही और क्या गलत
वो लड़खड़ाती आवाज में कुछ कहनें जा ही रहा था
पर दर्द आवाज पर भारी हो गया
“तुम्हे आज भी क्या मैं याद हूँ
या बस एक भूली बिसरी याद हूँ
तुम्हे याद है वो घर से छुप के मिलना
लोगों से बच बच के चलना
बृज की वो गलियाँ
वो बंसी वो छलिया
वो ताऊम्र के वादे
वो रिश्ते वो नाते
वो शब्द वो बोल
वो गौरया के घोल
तुम्हे या आआ द ह ह ऐऐऐ……..”
हर एक शब्द उसकी यादें ताज़ा कर रहा था
जैसे दिल से लहू टपक रहा था
मानों वक्त का हर लम्हा थम सा गया था
जिंगदी के बोझ से थक सा गया था
रमेश कि आवाज़ में
वही पुराना सा अन्दाज़ था
जुदाई का दर्द था या मिलन का आगाज था
एक आस जगी थी एक सुकून था
शायद गुजरी जवानी का जगा जूनून था
कुछ गुस्सा था भरा कुछ प्यार भी था
कुछ बरसों की जुदाई का बुखार भी था
कुछ दर्द थे दिल में बांटने को
कुछ मिलन का खुमार भी था
बहुत बातें थी कहने को
वक्त की कई चोटें थी सहने को
कुछ ये कहती कुछ वो सुनता
कुछ वो कहती कुछ ये सुनता
कानों से कुछ लम्हों को चुनता
आँखों से ख्वाबों को बुनता
मगर कहाँ किस्मत को खुशी गंवारा थी
जैसे कोई टूटा तारा थी
फोन ये कम्बख्त दोनों का फिर बजा
दोनों का कलेजा फटा
यादों का पर्दा हटा
हकीकत का मंच दुबारा सजा
पूजा के फोन उठाने के बाद वो जग पाया
तब रमेश जी नें भी अपना फोन उठाया
पीछे कोई जोर से चिल्लाया
आवाज़ किसी महिला की थी
पर लगा किसी बला की थी
"अपने स्टेडियम को जल्दी बेचो रमेश
मुझे आधा पैसा चाहिए वो भी कैश
माना की लोन लेकर
कड़ी मेहनत से खड़ा किया
तुम्हारा ये बेहद अजीज़ सपना है
पर कोर्ट का आर्डर मत भूलो
डिवोर्स में आधा हिस्सा अपना है॥"
रमेश जी ने फोन को देखा
फिर मिसेज शर्मा को
दोनों ही तरफ धोखे तो थे
कौन सा ज्यादा बेहतर था
वो समझ नहीं पाया
और यहाँ नेपथ्य के नेपथ्य में अब भी गूंज रहा था
एक ही नारा बनकर अजान
“क्या हम दोनों नहीं हैं एक समान ?”
नारी कमजोर नहीं होती, कभी थी भी नहीं
परंतु अपने से ज्यादा ताकतवर के पास जाना
उसकी नियति नहीं उसका स्वभाव है
यही उसका सदियों से बर्ताव है
रमेश उसे देखता रहा
जहाँ अब देखने को कुछ ना बचा था
नारायण जी की आवाज़ रमेश को नहीं आई
और अपनी भार्या की कर्कश ध्वनि भी ना भाई
इधर पूजा अपना चेहरा छिपाने लगी
और कुछ बहाने बनाने लगी
उसने रमेश को देख कर भी अनदेखा कर दिया
कहती भी क्या ? अब वो किसी और की है?
ये तो वो कई साल पहले ही कह चुकी थी
कहने को और भी बहुत कुछ था
पर यथार्थ के धरातल पे उसका कोई औचित्य ना था
बिना कुछ कहे वो कदम पीछे रखने लगी
नज़रें चुराकर पलटने लगी
रमेश का हाथ उठा उसे रोकने को
पर कौन से हक से रोकता वो उसे
समाज ने उसके हक को बेनाम कर दिया था
उसका दर्द, उसका प्यार, इतने सालों का रिश्ता
सब खाली, सब धुँआ, सब राख, अब यहाँ कुछ नहीं था बचा
उसे अपनी अँगुलियाँ वापस समेटनी पड़ीं
उसने फिर जाने दिया, पलटकर चुपचाप जाने दिया
फिर दूसरी बार उसे हमेशा को जाने दिया
हाथ बेमन वापस खींच लिया
और वो भी वहाँ से पीछे हट दिया
सब कुछ भूल कर भी एक छोटी सी आस जगी थी
उसे भी डाँट झपट दिया
जाने कौन सा डर था दोनों ने पलट कर नहीं देखा
सारी उम्मीदों को यूँही कर दिया अनदेखा
दोनो के कान फोन पे थे और ध्यान पीठ पीछे
रूकूँ की ना रुकूँ, पलटूँ की ना पलटूँ
इसी उधेड़बुन में कदम आगे बढ़ते रहे
और जिंदगी पीछे छूटती रही
एक डर ज़हन में घर करता जा रहा था
आखिर सीने से दिल निकल कर जा रहा था
पर हाय रे नसीबा, दुबारा कुछ ना कर पाये
कदम इतने भारी की नाम ना लेते उठने का
और जिंदगी ऐसी तेज की की नाम ना ले रुकने का
लेकिन पलट कर भी क्या कर लेंगे?
करें तो क्या करें, ना करें तो क्यूँ ना करें
पर ये दिल, इसे कोई तो समझाओ
अब वो मुमकिन ही नहीं जो पांच साल पहले था
समा बदल गया, अब वो दौर गुजर गया
सब कुछ बिखर गया इसे कोई तो बताओ।
वहाँ वो इन्सान नहीं है, तेरे जैसे अरमान नहीं है
सब धुंधलका है इसे कोई तो दिखाओ।
पर गर शायद कोई उम्मीद हो तो ?
फिर क्या करें?
कोई बताओ की तब हम क्या करें?
क्या करें हम क्या करें?
मन चाहे सब कुछ भुलाने का
जोर से आवाज़ देकर बुलाने का
हाथ कस के थाम जाने का
अपने गले फिर लगाने का
दिल के सारे जख्म दिखाने का
अपनी पूरी कहानी
एक साँस में सुनाने का
अरे कोई तो बताओ हम क्या करें?
सिर्फ आज की ही तो बात है
बस यही तो कुछ घण्टों की रात है
चंद लम्हों का बस और साथ है
रोक लो उसे, अरे कोई तो रोक लो
आज तो कमसकम जाने मत दो
हम सच में सबकुछ भूल जाँएगे
एक बार फिर अपनाएंगे
मरते दम तक साथ निभाएंगे
फिर कभी ना छोड़ के जाएंगे
अब कैसे रोकें क्या करें, कोई बताओ की क्या करें
ये लम्हा हाथ से कैसे जाने दे
थोड़ी देर और उन्हें रुक जाने दे
कुछ देर तो यादें दुहरानें दे
कुछ अनसुने जवाब तो आने दे
अपनी व्यथा, अपनी तड़प, तो सुनाने दे
अरे रुक जा पागल, कुछ देर और उन्हें देख पाने दे
कहाँ फिर अब दुबारा मिल पाएंगे
इस जन्म का आखिरी दीदार तो ठीक से हो जाने दे
अरे कोई तो बता दो कि हम क्या करें
क्या करें अब और क्या करें
कैसे समय पीछे मोड़े
किसके आगे हाथ जोड़े
क्या पूरी दुनिया छोड़ें
या अपनी सांसे तोड़े
या जान मरोड़े
या सर फोड़े
अरे कोई तो बता के जाओ की आखिर हम क्या करें
दिल चीखता चिल्लाता रहा
पर किसी के भी कदम ना रुके
दोनों ने पलट कर नहीं देखा
एक बार भी नहीं देखा
अपने मन के सभी सवाल
उन्होने फोन के बवालों के हवाले कर दिए
सीने से दो दिल आखिरकार
अपने ही जिस्म से अलग चल दिए
पीछे छोड़ गए बस एक लाश,
जो ना कभी रो सकती है, ना कभी मुस्कुरा सकती है
जिसमे ना कोई धड़कन
ना कोई स्पंदन,
बस निष्चल, निष्प्राण, बेमतलब, ठूँठ सा बेकार जीवन
उनकी क़दमों की दूर जाती आहट के साथ ही
नेपथ्य का मंच फिर से सूना हो गया
रह गई एक और याद जो
भुलाए ना भूले
और दोहराए ना वापस आए
वहाँ फिर वही काला स्याह
जिन्दगी का, हालात का, नसीब का,
अनचाहा सन्नाटा व्याप्त हो गया
जो अब हकीकत की ठोकरें खाता नज़र आ रहा था।
और फिर दुबारा बस एक पल्लू
और एक अँधियारे के भरोसे
इज्जत टिकी हुई थी
वो अन्धेरा उनके सारे आँसू पी गया
और वो फोन उनकी सारी सिसकियाँ
कदम भारी तो जिंदगी उससे भी ज्यादा भारी
इस नेपथ्य से ज्यादा अंधेरा नसीब में था
सो ये नेपथ्य फिर से वही नेपथ्य हो गया
जहाँ कलाकार केवल अपनी पोशाक
बदलने मात्र को आते हैं
और फिर वापस जाकर अपने
असली पात्र निभाते हैं
इस कर्म मंच से अनजान
पूरा समाज पिछले मंच पर लगा रहा था
वही बुलंद अजान
“क्या हम दोनों नहीं हैं एक समान ?”
“क्या हम दोनों नहीं हैं एक समान ?”
“क्या हम दोनों नहीं हैं एक समान ?”