अध्याय 34 ॥ मूँछें मैं बढ़ाता हूँ ॥
जून 2013, मैंने मुँछें बढ़ानी शुरू करी
औघड़ शिव की भूमि पे दुत्कारा सा जाता हूँ
फैशन के इस दौर में जब से मूँछें मैं बढ़ाता हूँ ।
जम्हूरियत परस्त बर्बर निगाहों से घूरते है मुझे
हाथ मिलाने पर उनको जो मैं राम-राम कह जाता हूँ ।
मंच सारे भरे पड़े है सी-मेजर के शोरों से
राग भुपाली सा मैं अब बस गुमनाम सुनाया जाता हूँ ।
अपने ही लोगों ने मुझे पिछड़ा करार कर दिया
चूँकि मैं तुलसी-ओ-कालिदास के दुलर्भ श्र्लोक दोहराता हूँ ।
हाय ! सियासत से लड़ने का वक्त कहाँ मुझको बोलो
चौदह घॅंटे जो दफ्तर में डमरू सा बजाया जाता हूँ ।
आतंकवादी मान लिया मंगल, भगत, आजाद को भी
मैं भूरे अंग्रेजो के खिलाफ अब तक आवाज़ उठाता हूँ ।
नहीं चाहिये मॉल तुम्हारे, गाँव, खेत वापस करो
मैं जमुना तट पर ग्वालों की बॅंसी सुनना चाहता हूँ ।
कौन सा मुल्क सहारा देगा इस बुड्ढ़ी सभ्यता को बोलो
मैं भारत हूँ, इण्डिया में अब बेइमान नज़र आता हूँ ।
औघड़ शिव की भूमि पे दुत्कारा सा जाता हूँ
फैशन के इस दौर में जब से मूँछें मैं बढ़ाता हूँ ।