अध्याय 29 ॥ मेरे खुदा ॥
अगस्त 2011,मैं आई. बी. एम में काम करने लगा था और मैनेजमेंट की पढ़ाई भी पूरी करने लगा था । यहाँ मुझे वक्त मिला अपने पे ध्यान देने का तो मैने फेसबुक नाम की वेबसाईट एक पेज दुष्यॅंत कुमार त्यागी जी का बनाया। इन पेजों के ज़रिये मैं साहित्य और संसकृति से जुड़ा रहा। मेरी संगत बदली और मैं आने वाले एक साल के अंदर सबसे बड़ा आस्तिक बनने वाला था। मुझे आज लगता है कि मेरे भगवान को लिखे पत्र का जवाब मिल गया। अब तक मैं ज्यादातर चिज़ों में भगवान को लाने लग गया था ।।–
ना सोना ना चांदी ना जहाँ दे, बस अपनी वो रहबरी निगाह दे
मैं ता-उम्र अकेला भटका हूँ, मेरी तन्हाई को अब तो पनाह दे॥
या तो ये दर्द ना दे, या मुझे इन दर्दों की दवा दे
या फिर ये सबको दिखें इन्हें लहूलुहान जख्म बना दे॥
मैं रुकना चाहता हूँ पर ये जिस्म दौड़ता रहता है
मैं दो पल बैठ सकूँ मुझे बस इतना सा तू थका दे॥
ना जाने आखिरी बार कब दम लिया था चैन से,
अब मुझे ये सांसें नहीं बस थोड़ी सी खामोश हवा दे॥
इस दौलत ने निचोड़ कर रख दिया है मेरा परिवार
इन कागजों के ढ़ेर से उबर सकूँ खुदाई का वो समाँ दे॥
इन बक़रों सा नहीं कटना चाहता मैं, हर लम्हा
मुझे भी कोई समझे खुद सा तेरा वही बस इंसाँ दे॥
और कितना इस जिंदगी को अभी झेलना है पहले तो ये बता दे
फिर या तो झेलने की ताक़त दे या मुझे वही दीवाना बना दे ॥
॥मेरे खुदा, ना सोना ना चांदी ना जहाँ दे, बस अपनी वो रहबरी निगाह दे ॥
॥मैं ता-उम्र अकेला भटका हूँ, मेरी तन्हाई को अब तो पनाह दे॥