अध्याय 6 ॥ मातृभूमि ॥

उसी साल २००२ में, मैं नौंवी में था, एक प्रतियोगिता के लिए कविता लिख के देनी थी। तो मैने ये लिखी पर मैं जीता नहीं। उन दिनों मैने देशभक्ति पे 3-4 कवितायें लिखी थी। किताबों के आर्दश दिल में समा गए थे, आज तो मैं चाहके भी उन्हे नहीं ढूंढ़ पाता। आज लालच हर जगह है समर्पण कहीं भी नहीं। और ऐसे ये संसार कितने दिन टिकेगा क्या पता ?

॥ मातृभूमि ॥


संध्या- समय उद्यान में बैठा,

निहार रहा था निर्मल झाँकी।

इस आनंद की बेला में विघ्न पडा तो सोचा,

‘कैसा है अपना देश?’,‘ क्या है जिसपर मैं गर्व करूँ?’

‘क्या है जिसपर मैं इतराऊँ’

तभी मेघ-गर्जन से मन चौंका, उठा, सोचा,

हाँ षट ऋतुयें बस हैं यँही, क्या इतना ही? नहीं!

जब मदमस्त सुरभिक बयार चली, ना गर्म ना बर्फीली,

क्या बस इतना ही? नहीं!

जब लहलहाते उद्यानों को देखा, तो लगा-

हाँ धन-धान्य भरपूर है ये।

क्या बस इतना ही? नहीं सिर्फ इतना तो नही!

भिन्न- भिन्न कीटों को देखा, तो लगा एकता है; भेदभाव नहीं,

पक्षी समूह को देखा उन्मुक्त गगन में,

तो लगा हाँ आज़ाद है ये।

हिरणों को मुस्काते देखा, तो लगा

प्यार, क्षमा, दान, दया सब है यँही।

तारों कों देखा, तो लगा, अनंत है अपना देश

हरी-भरी घास को देखा तो लगा

त्याग की आत्मा हैं यँही।

देखा पाहन को तो स्मरण हुआ नगराज हिमालय हैं यँहीं,

बद्री यँही, कैलाश यॅंहीं, त्रिकुट यँही, काशी यँही

देखा श्वेत आकाश को तो श्वेत इतिहास ज्ञात हुआ

राम यँही के, श्याम यँही के,

बौद्ध, जैन, बलराम यँही के

देखा बरगद को तो अपनी ताकत का ज्ञान हुआ

इंद्र, सुग्रीव, बालि की भूमि है

दूर्गा, पार्वति और कालि की भूमि है।

नभ-जल-भूमि का सम्मान ऐसा और कहाँ

माँ गङ्गा, माँ त्रिकुटा, माँ सरिखी ऐसे भाव और कहाँ

नवपूलकित, नवकोपल को देखा,

तो लगा अब उभरा है अपना देश

जब बूँद को मोती बनते देखा तो लगा।

हमें सीँप बनकर सवाँरना हैं अपना देश

स्वयं ही उभरा था ये प्रश्न, स्वयं ही मिला हल इसका,

धन्य है हे प्रकृति, धन्य है हे मातृभूमि…..!