अध्याय 5 ॥ कविता वन ॥
2001 में ही अपनी बहन के लिए लिखी थी। असल में उसे किसी काम से चाहिए थी। मैं अपनी कवितायें अक्सर यूँही बाँटता रहा हूँ। और ये भी बहुत लम्बी थी, इसके भी आज मैं कुछ ही पद्य याद कर सकता हूँ। मैं हमेशा से लम्बी कवितायें लिखने का आदि रहा हूँ, सोच है की एक भाव को एक ही वक्त में खत्म करना चाहिए।
निले-निले नीलगगन पे,
नीलकंठ के नीलकंठ पे,
सुदँर सुखद अदृश्य सुमन सी,
मधुर मनोहर मध्यम हठ सी,
गूँज- गूँज कर आई है।
सुन्दर शब्दजाल से चलकर,
कविता वन में आई है।
शब्दजाल फूलों सा कोमल,
अर्थाश्य काँटों सी उलझन,
मन की उड़ान है सुंदर ज़मीं,
हवा बनी है राग मधुरतम,
सुख- दुःख के भावों से बनकर,
खुद ही ये उग आई है।
सुन्दर शब्दजाल से चलकर,
कविता वन में आई है।
तैरती ये हवाओं में,
पानी के अंदर उड़ जाती,
इन्द्रधनुष के पार जा-जाकर,
सपनों को ये पखँ लगाती,
आत्मविश्वास की नई कोपल,
स्वयँ लड़कर फूट आई है।
सुन्दर शब्दजाल से चलकर,
कविता वन में आई है।
रोते हुओं को हंसाती,
हंसते हुओं को रूलाती,
समझाती नादानों को,
और ज्ञान- ध्यान की बात बताती,
यह पावन कविता मगर,
सबकी समझ ना आई है।
सुन्दर शब्दजाल से चलकर,
कविता वन में आई है।