अध्याय 66 ॥ हरिया की भूतबाधा ॥
12 मार्च, 2015। माँसाहार के ऊपर एक जोरदार व्यंग ।
साईकल पर कहीं जा रहा था हरिया मुँह लटकाके
अपनी महेरिया को आगे बिठाके, पैडल धीरे धीरे चलाके
मैने आवाज दी तो वो रुका, पास आकर राम राम कहने को झुका॥
मैंने पुछा, “रे हरीया, ये तेरी महेरिया बिखरी बिखरी बेहाल क्यूँ पड़ी है
बता कहीं कोई विपदा तो नहीं आन पड़ी है।”
वो बोला, “बाबू का बतायें दो दिन से अजीब अनाप शनाप बक रही है।
मुझको खूनी और खुद को लछौ नहीं कल्लू कह रही है।
कल तो गला पकड़ बैठी, लगता है कोन्हो भूत-प्रेत का चक्कर होगा।
अब पड़ोस के फकीर बाबा के पास ही इसका कोन्हो मंत्र होगा।
मैने सोचा ऊहाँ दिखा लाऊँ उनके पास जरुर कोई जंतर होगा।
राम कसम बाबू मैने सारी जिन्दगी कभी, किसी का कछु बिगाड़ा नहीं ॥”
मैनें चुटकी ली, और कहा , “क्यूँ झूठ बोलते हो भैया
क्या इतवार को तूने छोटू का मुर्गा चोरी नहीं किया,
तू चुपचाप ऊठा लाया, फिर काटा, पकाया और खाया,
मुझे लगता है उसी का भूत तेरे पीछे है आया।”
हरीया और उसकी महेरिया हँसे खिलखिला कर
बोले, “ काहे मजाक उड़ाते हो बाबू मुर्गे को भूत बतलाकर
अरे मुर्गा भी कोई भूत होत है का, ऊ मा तो ना प्राण ना आत्मा॥”
मैनें फिर उसे उकसाया, “जो भी हो छोटू को तो बहुत दुखः हुआ
वो तो ऐसे रो रहा था जैसे उसका भाई खो गया
छोटू उसे दाना देता था, उसके साथ खेलता था,
मुर्गा तो केवल खाने के लिये पाला जाता है, उस अबोध को कहाँ पता था ।
वो मर गया है ये छोटू को अब तक कोई नही बतला पाया
वो उसे आज भी ढूँढता है रोता हुआ, उसे कोई नहीं समझा पाया ॥”
निठुर हरिया थोड़ा और अकड़कर बोला, “सो तो है, कोई नहीं, अब सीख जावेगा
धीरे धीरे खाने भी लगेगा तो फिर उसको भी स्वाद भावेगा।
अब बाबू जानवर को भगवान ने खाय के लिये……” कहते कहते हरिया रुक गया
उसको हाथ में दाने लिये उदास छोटू आता दिख गया,
आँख में थे आँसू, और जुबाँ पे अपने दोस्त मुर्गे का नाम था, “कल्लू ! कल्लू !”
आज दबंग हरिया की आवाज गले में ही घुट कर रह गई
उसके जीभ के इर्द-गिर्द बने उसके आदर्श कितने खोखले थे
ये पूरी कहानी उस एक शब्द में उसकी खामोशी कह गई॥