अध्याय 19 ॥ गुज़री यादें ॥

21 मई, 2010 दूसरी नाकाम कोशिश

॥ गुज़री यादें ॥


दूरियाँ दोनो के दर्मियाँ थी महज़ दो गज

बढे़ हम भी चार, बढे़ तुम भी चार कदम

ग़र एक दूजे की आँखों में देख लेते तो बात कुछ और होती।


ना तुम ढंग से रूठ पाई, ना मैं ढंग से मना पाया

और फासले यूँही बढ़ते रहे

ग़र अपने नखरों में नज़ाकत नही

जर्राभर प्यार छुपा लेते तो बात कुछ और होती।


हम एक-दूजे की खू़बियाँ ढूढ़ना चाहते थे

और खा़मियों का पहाड़ खोद बैठे

ग़र चंद ख़ामियों को भुला भी देते तो बात कुछ और होती।


ना तुमने तोहफों का जिक्र किया

ना मुझे मौंकों का इल्म हुआ

ग़र चुप्पी तोड़ हम राज़दार बन जाते तो बात कुछ और होती।


ऊम्र ऐसी ढली जैसे पतझड़ की टहनी से पत्ते

और सोच धारणा बन, सूखी टहनी सी चटकने लगी

काश! दो लचीले अंकुर दरियादीली के

भी फूट जाते तो बात कुछ और होती।


आज हम दोनो खामोश हैं भोर की तरह

और जवानी ढल गई गोधुली की धूप की तरह

ग़र बिते प्यार का एक दिया फि़र जला पाते तो बात कुछ और होती।


जब हम दोनो शर्माते थे

ना आगे बढने की हिम्मत थी और ना पिछे हटने का मन

बस वही अहसास एक बार फिर जगा पाते तो बात कुछ और होती।


आधे वक्त अतीत के पन्ने पलटता रहता हूँ

काश उस दिन ऐसा नहीं वैसा करता तो शायद कुछ यूँ होता

ग़र वो पल एक बार फिर जी पाते तो बात कुछ और होती।


मेरा हाथ पकड़ होले से हॅंसना

होंठो पे हाथ रख मुझे दूर धकेलना

और नाराज़गी पर हाथ कसके पकड़ वापस खीचॅंना

तुम्हारी उस शर्मीली कश्मकश को बस एक बार

फिर देख पाते तो बात कुछ और होती।


अब ना वो गली रही, ना घर, ना लोग

सब चले गए, सब बदल गया

वो बचपन के दिन वो यारों की मस्ती

फिर दिख जाती तो बात कुछ और होती


अपना वो पुराना घर झड़ते दर-ओ-दिवार

अॅंधेरे तहखाने और बंद कोठरीयाँ

ग़र वहाँ जाले हटा रोशनी फिर

कदम धर पाती तो बात कुछ और होती।


थोड़ी जिंदगी माँ-बाप के पिछे भागा

बाकी पैसों के और अब बेटों के,

काश! दम तोड़ भी चैन ले पाते तो बात कुछ और होती।


वो हसीन वादियों में तेरी जुल्फे़ सहलाते हुए

चोरी छिपे मिलना और भीड़ में छूने के बहाने खोजना

ऐसे ही चंद अहसास और जुटा पाते तो बात कुछ और होती।


गोरा रंग, घनी जुल्फें, शर्म और नज़ाकत

हम तो कब के लुट चुके थे इस चेहरे पे

ग़र सूरत नहीं सीरत पहचान पाते तो बात कुछ और होती।


अंधेरे को मिटाने को बस एक दियासलाई जलाई

और लालच में उॅंगली जला बैठे

ग़र उसकी खु़दाई का ऐसा सिला ना पाते तो बात कुछ और होती।