अध्याय 26 ॥ धर्म और सत्ता ॥
17 सितम्बर, 2010 एक और ग़ज़ल
पहले इन गरजते, टकराते धर्मों को दिलासा दिजिए
तब जाकर मेरे वतन को कोई तो आशा दिजिए॥
15 लिपी, 36 बोलीयों का अब मैं बोलो क्या कॅंरू
दिल से दिल जुड़ सके ऐसी कोई भाषा दिजिए॥
बेदी सजी, बकरा सजा, पण्डत भी तैयार है,
कोने में पड़ी पुकारती गीता की निराशा लिजिये॥
दो बलबीरों ने दबोच लिया छटपटाता बेजुबान,
इन्सानियत के चेहरे पे पड़ता तमाचा लिजिये॥
अनदेखी, अनसुनी करती है प्रजा भी और राजा भी
इस मुल्क ने सत्ता को कैसे तराशा लिजिए॥
मेरे मुल्क में एक बार आना तुम भी जरूर
घूस खाकर अब भी गाँधी पे इतराता जमाना लिजिये॥
लाल सुर्खियाँ पढकर जब ऊबने लगे हैं लोग
तो बिल्ली पकड़ने का सनसनी खेज खुलासा किजिए॥
बोर होने लगो कभी तो दूरदर्शन लगा लेना
मुफ्त में संसद चलता है, सालभर तमाशा लिजिये॥
किताबी ज्ञान तो कब का फ़ीका हो चला,
अब नम्बरों की दौड़ का झुठा बताशा दिजिये॥
बस दो हजा़र की दवाईयो में बजट गड़बड़ा गया
अब इस कलर्क के चेहरे की हताशा लिजिये॥
चंद सिक्कों में बिक जाती ये पाक जान है
खुदा अब रहमत नही, बस ये माया दिजिए॥
तेरे सामने इस दौर का ये दुसरा भगवान है
मेरे खुदा मुझे इन काग़जो़ं से छुटकारा दिजिए॥
हम खुद से चिढ़ने लगे ऐसा भी दौर आ गया
मुझे लड़कपन के दिन वापस दोबारा किजिए॥
खुद ही भर आता है खुशी देख के ये दिल मेरा
ऐ! किस्मत मुझे यारों की गलियों में ना जाने दिजिए॥
अब ना वो बुद्ध, ना गाँधी, ना विवेकानन्द हैं,
मेरे खुदा इस पीडी़ को बिखरने से तो बचा लिजिए॥
पहले इन गरजते, टकराते धर्मों को दिलासा दिजिए॥
तब जाकर मेरे वतन को कोई तो आशा दिजिए॥