अध्याय 17 ॥ भगवान को एक पत्र ॥
दिसम्बर 2009, मैं पैप्सी में काम करने लग गया था। अजी काम क्या, समझिए मशीन बन गया था। सुबह कभी 9 कभी 8 तो कभी 7 बजे ही घर छोड़ देता था। और रात को 9 से 11 तक घर में घुसता था। इसपर भी इतवार की छुट्टी तो बस किताबों में ही लिखी थी। मैं क्रिसमस के दिन भी काम कर रहा था। तब मुझे अहसास हुआ इन्सान किस हद तक गिर गया हैं। ऐसी जिंदगी में कोई ग्लोबल वार्मिगं, या जानवरों के हक के लिए कैसे लड़ सकता है, जब उसे खुद ये अहसास नहीं हो पाता कि वो इन्सान हैं। धीरे-धीरे मैंने महसूस की एक आम आदमी की लाचारी और दूनिया के गिरते मुल्य। एक दिन मैं गुड़गाँव के मॉलों से वापस आया रात को और नींद नही आ रही थी तो मैं जग कर कुछ लिखने लगा। मैने ये कविता लिखी भगवान से चंद सवाल पूछाने के लिए।
ऐ! मेरे खु़दा तेरी खु़दाई पर कैसे कॅंरू मैं विश्वास
जब चिखती है ज़िंदगी बन कर यूँ मुर्दा लाश
इंसान एक है सबने माना क्यूँ तेरे ही रूप हज़ार हुए?
अवतारों की होड़ में खु़द भगवानों के यहँ व्यापार हुए।
तू है कहाँ अपना पता बता क्यों नही देता?
तू ना जाने नाम लेकर तेरा कैसे–कैसे अत्याचार हुए।
तू ही बता गुरूद्वारे में या कि मस्ज़िद में किस ओर कॅंरू तुझे तलाश
अब तेरी ख़ुदाई पर कैसे कॅंरू बता विश्वास
इन्सान का इन्सान से नाता केवल मतलब बना
दिल मिले ना मिले बस मतलब निकलना चाहिए
कोई मरे तो ग़म नहीं है मौत का
ग़म तो है कि उसके बग़ैर भी अब काम चलना चाहिए।
नहीं ज़रूरत फिर भी हैं सोने के घर
और नंगी मौत मंडराती है बेघर भूखों के दर
उस पर तुझे अब भी है गुरूर के तेरा नाम पलना चाहिए।
बता मुझको गरीब पापी है या ग़रीबी खु़द इक पाप
किस ओर सच्चाई है और कहाँ है तेरा वास?
अब तू ही बता तेरी खु़दाई पर कैसे कॅंरू मैं विश्वास
मैं नहीं कहता की पैसा तुझसे बढ़ा है,
हाँ, मगर तुझसे कम नहीं है।
या फिर तू ख़ुद कहदे के पैसे में तेरे जितना दम नहीं है
वत्र, यज्ञ, हवन में पैसा,
मुरादों में खुद तेरे द्वार पर ख़ड़ा है पैसा
और तू कहता है,‘‘ जहाँ लालच है वहॉं हम नहीं है।’’
ऐ मायावी! ये सारा माया का चक्कर तूने ही तो बनाया है
मोक्ष पाने में, ख़ुद तेरे मंदिर में काम आती माया है।
बर्फ में ठिठुरती मींलों कतारों में ख़ड़ी है गरीबी
उड़ कर पॅंहुचा सेठ और देख उसका पहला नम्बर आया है।
इंसान गधा बनकर यहाँ इन्सानों को ही ढ़ोता है।
क्यॅूं मैं हूँ लाचार, और तेरे होते हुए भी इन्सानियत है इतनी निराश
अब तू ही बता तेरी खु़दाई पर या कि पैसे पर कॅंरू विश्वास
सतयुग में हरिद्वार, त्रेता में गंगोत्री, द्वापर में गोमुख
अब कुछ और दूर, गंगा अब इन्सानों से छिपकर भागती है।
यमुना पर तो दरिद्रता का घाट बना,
कभी पाप धोती थी आज खु़द की सफाई माँगती है।
पढे–लिखे तो कई हैं जग में मुई चार किताबें पढ़के
ज्ञानी विद्वान सारे बन गए चार समीकरण तरके
इक अनपढ़ मूरख सा प्राणी जिसके सीने में थोड़ी सी भी भलाई हो,
ऐसे एक विद्वान की खातिर सरस्वती अब रातों को जागती है।
बस अब कुछ सालों में द्वारिका भी डूब जाएगी
गंगा, कावेरी भी सूख जाएगी
ना अमरनाथ का शिवलिंग रहेगा, ना हिमालय की बर्फ रह पाएगी
ऐसा जुग लाने वाले मक्कारों पर तूने कर दी धन की बरसात।
अब बता मानुस किस पर टिकाए आस
चल अब तू ही बता ऐसे हालातों में
मैं क्यूँ कॅंरू तुझपर विश्वास?
आ चल दिख़ाता हूँ कसाई के दर
पे किस तरह मौत का माहौल होता है
हाथों में चमचमाती कटार,
तिलमिलाया बकरा ना भाग पाता है ना रोता है
फिर गर्दन पर तलवार चलती है
और अपना ही लहू टपकता रहता है।
माँ–माँ की जब पुकार गूँजती है तब कॅंही एक बकरा हलाल होता है।
आँखों में मौत का सन्नाटा और एक-एक करके नस कटती है
पिंजंरे में बैठा पॅंछि अपनी मौत का नम्बर
अपने कटते यारों की चीखों में महसूस करता है।
सहमा सा बैठा है वो डर के साए में मासूम
मान लिया जा तू है भगवान
मान लिया जा तू है भगवान पर
क्या तू खु़द ऐसी जिंदगी जी पाएगा।
इन्सान तो कुछ लड़ भी लेगा
पर इन बेजुबानों को बचाने बता कौन आएगा?
हरेक लब को तलब है लहू की और जीभ को चाहिए बस मॉंस
अब आँखे डाल कर बोल तू क्यों बलियाँ माँगता है
और क्यों कॅंरू तुझपर ऐसा अँधविश्वास…….।
तू खुद झूठा है अलग-अलग पथ बताए सबको
अलग-अलग बताए नाम
किसी को बोला मैंने दुनिया बनाई और मिटाई
किसी को बोला पालना है मेरा काम
क्यॅूं अपने बंदे भेज तूने ये धर्म बनाए
प्यार से रहते इंसानों के मन में नफरत के बीज बुआए
मोमिन क्यॅूं मलेच्छ हैं और पंडत क्यॅूं काफ़िर
दिन-रात सोचूँ मैं पर ये भेद समझ ना आए
दिल में ढूँढू तू मिलता नहीं है
बाहर खोजूं तो मंदिर मस्जिद के साए
एक ही रूप में आ जाता तो तेरा क्या चला जाता
जवाब दे अब झूठे ! , क्यूँ तूने अनेक रूप सजाए
तेरी राह में झूठ और फरेब है तू खुद आजा मेरे पास
बोल ऐ! रब मेरे क्यूँ कॅंरू तुझ जैसे छलिये पर विश्वास॥
मंदिर मस्जिदों के बाहर तेरे भक्त तड़पते रहते है
दो निवालों के लिये बिन पाँव सरकते रहते है
मैने देखी है उनके भूखे पेट से निकलती आवाज
और सुनी मैनें उनके आँसूओं की भक्ति
दिन रात वो तुझे तेरे ही द्वारे पर आकर बुलाते हैं
तो क्यूँ ये भक्त तुझे मिल नहीं पाते हैं
सब जानता हूँ मैं जिवन-मरण, जन्म-मृत्यू का चक्कर
किसी को याद तक नहीं की,
कौन से पाप,
कौन से जन्म,
कौन से कर्म की वजह से,
किस-किस के साथ ये सब होता है।
तु खुद तो आकर निकल गया
इसमें फंसकर हमने भी देखा था तू कैसे रोता है।
अब बता मैं कैसे माँनू तू सुनेगा मेरी भी फरियाद
अब कौन सी भक्ति से आदमी बुलाए तुझे पास
आखिर क्यूँ कॅंरू मैं ऐसे निदर्यी पर विश्वास…..॥
यहाँ जिस्म बिकता है हवस का बाज़ार जलता है
यहाँ गुलाम बनाकर मासुमों का व्यापार चलता है।
तुझे मैं मसिहा अब माँनू कैसे
तेरी ही गलियों में यहाँ काम, मोह और प्यार पलता है
हो चुकी अब मंदिरों की खेाखली नींव
और तेरे आदर्श तो कब के फ़ना हुए
पत्ता नहीं इंसान भी तुझसे हो चुके दूर
और तू कहता है तेरे नाम से सारा संसार चलता है।
निराकार था तू फिर तुझे साकार किया
साकार को आकार दिया
और उस आकार से कई भक्तों ने प्यार किया
अब जब भक्ति दुर्बल हुई
तो तस्वीरों में तेरी अश्लीलता कर गई निवास
कैसा है तू भगवान जो कॅंरू तुझपर विश्वास॥
कण-कण में तेरा वास है
फिर भी हर आदमी निराश है
दिलों में रहता है तू सबके
और शीशे पत्थरों में ढूँढता तुझे विश्वास है
मैं कह तो बहुत कुछ चुका है
पर सुनने वाला एक भी इसपर अमल करेगा नही
करना भी चाहे तो लाचार है, ज़माने से लड़ेगा नही
तू छोड़ सारी दूनिया को तू खुद भी है लाचार
बस यूँही इस भीड़ में मिट जाएगा मेरा भी उच्छावास
अब तू बोल चाहकर भी कैसे कॅंरू तुझपर विश्वास॥
सुना है इस जहाँ में बस दो ही बातें सुँदर है
जिंदगी और मौत
है तू कॅंही पर तो एक चमत्कार फिर खेल जा
एक लास्य फिर से दिखा और ताँडव फिर से खेल जा
खोल अपना त्रिनेत्र, आग का बनके बवंडर
ग्रहों को मौत के मुँह में धकेल जा
सब पापी हैं नही कोई भी भला जग में
मत्सय अवतार ले तू फिर एक समुंद्र उडेल जा
हे नीलकण्ठ! हे जटाधारी!
हे भैरव! हे त्रिपुरांतकारी!
कर गंगाजलपान और धर विकराल रूप भारी
एक आँधी और एक आकाल बन कर तू आ
पलटा दे ध्रूवों को, प्रलयॅंकर तू फिर से प्रलय मचा
समुद्र में ज्वार उठे, लहरें अपनी दिशाएँ भूल जाए
जमा हुआ है खून जिनका वो मानव भी खुद जम जाँए
मानवता का खून पीकर नही चाहिए ऐसी उन्नति
देजा एक हिमयुग जो पाषाण सतयुग लाए
वक्त का पहिया ऐसा घूमे के बदल जाए धरती की चाल
उसी प्राचिनयुग में करूँगा तुझपर विश्वास…
अब तू ही बता ऐसी जिंदगी और ऐसे हालातों में
क्या तू खुद कर पाता है अपने पर विश्वास
जा मै तो नही करता तुझपर विष…वास……..॥
जा मै तो नही करता तुझपर विष… वास……..॥