अध्याय 18 ॥ बेरंगी दुनिया ॥
20 मई, 2010 मैं पहली बार ग़ज़ल लिखने की सोच रहा था पर लिखी नहीं गई। मेरी एक नाकाम कोशिश।
उगते सूरज ढ़लते चाँद
और बारिशों में जलते मकान
हमने भी देखे थे जमाने के कई रंग
पर अब ये दुनिया बेरंगी हो गई।
जब मैं कंगाल था तो जाने- अंजाने सब दूर चले गए
आज भरपेट खाया तो ये दुनिया साथी संगी हो गई।
ताउम्र लोगों के घर बनाता था जो
उसे कटोराभर पानी नसीब ना हुआ जब उसकी कुटिया जली
तुम्हारा ही खाकर तुम्हारा मज़ाक उडाए ऐसी तमाशबीन हो गई।
ना आँख में आँसू ना दिल में दर्द
मयतो में मातमों के शोर को ग़म नही बल्की रिवाज बना दिया
और टी.वी. पर बस सनसनी हो गई।
उस भोज से अच्छा क्या हो जिसमें किसी की जान मिले
बाड़े का खुशहाल परीवार आज थालियों में है पड़ा
हाँ मगर बारातियों की जुबानें जरूर नमकीन हो गई।
प्यार का फलसफ़ा मैं क्या जाँनू
बस इक साँवली सी लड़की से प्यार हुआ
और अचानक वो हसीन हो गई।
सूरत कुछा ख़ास ना थी मगर बाँते पसंद थी
या तो अब वो सूरत बदल गई
या मेरी नज़रें ही रंगी हो गई।
देखते ही देखते बाल सफेद हुए ज्यों पहाडों में फैलता कोहरा
मैं खुद से चिड़ गया जब हाथ बड़ाकर भी थाम ना पाया
उस जवानी को जो खुँटे पे टंगी सो गई।
ना वो पॅंहुचा ना, उसकी माँ की पुकार
शहर के शोरगुल में खो गया बेटा एक अरसे से
क्यूँकि गाँव के घर में थी तंगी हो गई।
थी तो बात बहुत छोटी सी मगर
एक अह्म पे कई सियासी अह्म मिले
और बात मुद्दा बनके संगीन हो गई।
हम आज़ाद तो हैं पर उन्मुक्त नहीं
मसले टिके रहे, दूनिया बढ़ती रही, हम लड़ते रहे
और सुर्खियाँ जरूर नमकीन हो गई।
कलजुगी रंग बिखरे हैं ज़माने में
और ना जाने कैसी अजब तहज़ीब है?
कपडे पहनके भी ये दूनिया अधनंगी हो गई।