अध्याय 38 ॥ अवसाद का आलम ॥

16 अप्रैल, 2015


॥ अवसाद का आलम ॥


कभी ज़ोर से चीखना चाहता हूँ कभी बस मरना चाहता हूँ मैं।

पर शायद कुछ ऐसा अब भी है बाकी जिसे करना चाहता हूँ मैं॥


किसे समझाऊँ मैं अवसाद का आलम कि मैं खुद भी नहीं जानता

कब गला फाड़ रोना चाहता हूँ और कब जीतोड़ लड़ना चाहता हूँ मैं॥


दर्द अब भी है दर्द तब भी होगा, पर कोइ दर्द ताउम्र तो नहीं रहता

हाँ इस ज़िल्लत के दर्द से बस कैसे भी उभरना चाहता हूँ मैं॥


तूने क्यूँ झूठ कहा की ज्ञान, दौलत से और कर्म, भाग्य से बढ़ा है

इस नरबली के खिलाफ़ कमसकम एक बार गरजना चाहता हूँ मैं॥


कसाई कि पकड़, पिंजरे से हालात, गले पे छूरी, सब दरवाजे बंद

फड़फड़ाते किसी पँछी सा एक आखिरी बार उड़ना चाहता हूँ मैं॥


खुद जिन्दगी डराने लगी है, फिर एक तेरे प्यार का भी है बोझ

जो कभी किये थे उन तमाम वादो से बस मुकरना चाहता हूँ मैं॥


नहीं चाहिये तुम्हारे हौसले या ताने, बस एक चुप्पी, एक सन्नाटा दो

तुम्हारे इन बेफिजूल खोखले शब्दों के उस पार उतरना चाहता हूँ॥


कहीं दूर चला जाऊँ जहाँ कोई ना पूछे की मैंने किया क्या है।

किन्ही सुनसान रास्तों से बस चुपचाप गुमनाम गुज़रना चाहता हूँ मैं॥


कभी ज़ोर से चीखना चाहता हूँ कभी बस मरना चाहता हूँ मैं।

पर शायद कुछ ऐसा अब भी है बाकी जिसे करना चाहता हूँ मैं॥